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तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
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(२) अबिभयुः । भी+लुङ् । अट्+भी+शप्+झि| अ+भी+०+झि । अ+भी+भी+जुस् । अ+बि+भे+उस् । अबिभयुः ।
यहां 'ञिभी भयें' (जु०प०) धातु से 'अनद्यतने लङ्' (३ । २ ।१११) से 'लङ्' प्रत्यय, पूर्ववत् 'अट्' आगम, 'लङ्' के स्थान में लादेश 'झि' प्रत्यय होता है । 'कर्तरि शप् (३|१|६८) से 'शप्' प्रत्यय, 'जुहोत्यादिभ्यः श्लुः' (२/४/७५ ) से 'शप्' को 'श्लु' और 'श्लौं' (६ 18190) से 'भी' धातु को द्विर्वचन होता है। 'उभे अभ्यस्तम्' (६1१1५) से द्विरुक्त धातु की अभ्यस्त संज्ञा और इस सूत्र से अभ्यस्त धातु से 'झि' प्रत्यय के स्थान में 'जुस्' होता है । 'हस्व:' ( ७/४/५९ ) से अभ्यास को ह्रस्व और 'अभ्यासे चर्च (८/४/५३) से अभ्यास के 'भ्' को जश् 'ब्' होता है । 'जुसि च' (७।३।८३) से धातु को गुण, 'एचोऽयवायाव:' ( ६ |१/७५) से 'अय्' आदेश होता है।
(३) अजिहयुः । 'ही लज्जायाम्' (जु०प०) । अभ्यास के 'ह' को 'कुहोश्चुः' (७/४/६२) से चवर्ग 'झ' और 'अभ्यासे चर्च' (८/४/५३) से 'झू' को जश् 'ज्' होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है ।
(४) अविदुः । विद्+लङ् । अट्+विद्+शप्+झि | अ+विद्+0+जुस् । अ+विद्+उस ।
अविदुः ।
यहां 'विद् ज्ञाने' (अदा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लङ्' प्रत्यय और उसके लादेश 'झि' प्रत्यय के स्थान में इस सूत्र से 'जुस्' आदेश होता है.
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जुस्-आदेशः
(१२) आतः । ११० ।
प०वि० - आत: ५ ।१ ।
अनु०-लस्य, ङितः, झे:, जुस्, सिच् इति चानुवर्तते। अन्वयः - सिचो लुकि सति आतो धातोर्डिंतो लस्य झेर्जुस् । अर्थ :- सिचो लुकि सति श्रुत्याऽऽकारान्ताद् धातोः परस्य ङित् सम्बन्धिनो लादेशस्य झि प्रत्ययस्य स्थाने जुस् आदेशो भवति ।
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उदा०-ते अदुः । । ते अधु: । अस्थुः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (सिच्) सिच् प्रत्यय का लुक् हो जाने पर श्रुति से (आत:) आकारान्त (धातोः) धातु से परे (ङितः ) ङित् लकार सम्बन्धी ( लस्य ) लादेश (झे:) झि-प्रत्यय के स्थान में (जुस्) जुस् आदेश होता है।
उदा० - ते अदुः । उन्होंने दान किया। ते अधुः । उन्होंने धारण-पोषण किया । ते अस्थुः । उन्होंने अवस्थान किया ।
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