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________________ ५४५ तृतीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः जाता है। तत्पश्चात् 'अव्' आदेश होता है। यहां 'छन्दस्युभयथा' (३।४।११७) से 'आताम्' प्रत्यय को सार्वधातुक मानकर तनादिकाभ्य: उ:' (३।१७९) से उ' विकरण प्रत्यय होता है और 'आताम्' प्रत्यय को आर्धधातुक मानकर डित्त्वाभाव से विकरण प्रत्यय को गुण हो जाता है और कृ' धातु को उत्व नहीं होता है। ऐसे ही-करवैथे। ऐ-आदेशविकल्प: (३) वैतोऽन्यत्र।६६। प०वि०-वा अव्ययपदम्, एत: ६।१ अन्यत्र अव्ययपदम् । अनु०-लस्य, लेट:, ऐ इति चानुवर्तते। अन्वय:-धातोर्लेटो लस्य एतो वा ऐ, अन्यत्र । अर्थ:-धातो: परस्य लेट्सम्बन्धिनो लादेशस्य एकारस्य स्थाने विकल्पेन ऐकार आदेशो भवति, परं स 'आत ऐ (३।४।९५) इत्युक्तविषयादन्यत्र वेदितव्यः। उदा०-(ए-आदेश:) सप्ताहानि शासै। अहमेव पशूनामीशै (का०सं० २५ ।१) । मदग्रा एव वो ग्रहा गृह्यान्तै (तै०सं० ६।४।७।१)। मद्देवतान्येव व: पात्राण्युच्यान्तै (तै०सं० ६।४।७।२)। न च भवति-यत्र क्व च ते मनो दक्षं दधस उत्तरम् (ऋ० ६।१६ ।१७) । ___ आर्यभाषा-अर्थ-(धातो:) धातु से परे (लेट:) लेट् सम्बन्धी (लस्य) लादेश के (एत:) एकार के स्थान में (ए) ऐकार आदेश होता है, परन्तु वह 'आत ऐ' (३।४।९५) के उक्त विषय से (अन्यत्र) अन्य स्थान पर होता है। उदा०-संस्कृत भाग में देख लेवें। सिद्धि-(१) शासै । शास्+लेट् । शास्+शप्+अट्+ इट् । शास्+0+अ+ए। शास्+अ+ऐ। शासै। यहां 'शासु अनुशिष्टौ' (अदा०प०) धातु से 'लेट्' प्रत्यय और उसके 'ल' के स्थान में उत्तम पुरुष एकवचन 'इट्' आदेश है। उसे 'टित आत्मनेपदानां टेरे' (३।४।७९) से 'एत्व' होता है। इस सूत्र से उस एकार के स्थान में 'ऐकार' आदेश होता है। (२) ईशै। ईश ऐश्वर्ये (अदा०आo) पूर्ववत् । गृह्यान्तै, उच्यान्तै पदों की सिद्धि उपसंवादाशङ्कयोश्च' (३।४।८) के प्रवचन में देख लेवें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003297
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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