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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् अन्तरिक्षम् (१।११५ १)। (७) वृज्- मा नो अस्मिन् महाधने परा वर्षं (ऋ० ८ ७५।२)। (८) कृ-अक्रन् कर्म कर्मकृत: । (यजु० ३।४७)। (९) गमि-अग्मन् (ऋ० १ १२१ १७)। (१०) जनि-अज्ञत वा अस्य दन्ता: (ए० ७।१४।१५)।
__ आर्यभाषा-अर्थ-(मन्त्रे) वेदविषय में (घसन्जनिभ्य:) घस, हर, नश, व, दह, आत्=आकारान्त, वृज्, कृ, गमि और जनि धातुओं से परे (ले:) चिल-प्रत्यय का (लुक्) लोप होता है।
उदा०-ऊपर संस्कृतभाषा में देख लेवें। उदाहरणों के अर्थ वेद में निर्दिष्ट पते पर देखें। मन्त्रखण्डों का अर्थ देना सम्भव नहीं है।
सिद्धि-(१) अक्षन् । अद्+लुङ् । घस्+त् । अट्+घस्+च्लि+ल् । अघिस्+o+झि। अ+घस्+अन्ति। अ+घस्+अन्त् । अ+घ्स्+अन् । अ+घ्ष्+अन् । अ+गण+अन् । अ+ +अन् । अक्षन्।
यहां 'अद भक्षणे (अदा०प०) धातु से 'लुङ् (३।२।११०) से सामान्य भूतकाल में लुङ्' प्रत्यय है। लुङ्सनोर्घस्तू (२।४।३७) से 'अद' के स्थान में 'घस्ल' आदेश है। लि लुङि' (३।१।४३) से चिल' प्रत्यय है। इस सूत्र से लि' प्रत्यय का लुक् होता है। झोऽन्तः' (७।२।३) से झ्' को अन्त-आदेश, इतश्च' (३।४।१००) से इकार का लोप, संयोगान्तस्य लोपः' (८।२।२३) से त्' का लोप होता है। 'गमहनजन०' (६।४।९२) से घस्' का उपधा लोप, 'शासिवसिघसीनां च' (८।३।६०) से घस्' को षत्व, (घष्) झलां जश् झशि से घ्स् को जश्त्व (ग) और खरि च' (८।४।५५) से गले को चत्व (कक्ष) होता है।
(२) माहः । हालुङ्। ह+लि+ल। ह+o+तिप्। ह+त्। ह । हः ।
यहां व कौटिल्ये' (भ्वा०प०) धातु से पूर्ववत् 'लुङ्' और चिल' प्रत्यय है। न माङ्योगे (६।४।७४) से अड् आगम का निषेध है। इस सूत्र से चिल' प्रत्यय का लुक् होता है। सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से ढको गुण (हर्) 'हल्ड्याब्स्यो दीर्घात०' (६।१।६८) से 'त' का लोप होता है। खरवसानयोर्विसर्जनीयः' (८।३।२५) से 'र' को विसर्जनीय होता है।
(३) प्राणट् । प्र+नश्+लुङ् । प्र+अट्+नश्+च्लि+ल। प्र+अ+नश्+o+तिप्। प्रा+नश्+त्। प्रा+न+। प्रा+नड्। प्रा+नट् । प्राणट् ।
यहां णश अदर्शने (दिवा०प०) धातु से पूर्ववत् लुङ्' और च्लि' प्रत्यय है। इस सूत्र से चिल' प्रत्यय का लुक् होता है। वश्चभ्रस्ज०' (८।२।३६) से नश् को षत्व (नए)। 'झलां जशोऽन्ते (८।२।३९) से जश्त्व (नट) और वाऽवसाने (८।४।५६)
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