SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 56
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पाद: १५ स्तुतवान्। मृष्टः। मृष्टवान्। (डिति) चिनुत: । चिन्वन्ति। मृष्ट: । मृजन्ति। आर्यभाषा-अर्थ-(डिति) गित्, कित् और डित् प्रत्यय के परे होने पर (च) भी (इक:) इक् के स्थान में (गुणवृद्धी) गुण और वृद्धि (न) नहीं होती है। उदा०-(गित्) जिष्णुः । जीतनेवाला । भूष्णुः । सत्तावाला। (कित्) चित:, चितवान्। चयन किया। स्तुत:, स्तुतवान् । स्तुति की। मृष्टः, मृष्टवान् । शुद्ध किया। (डित्) चिनुत:, वे दोनों चुनते हैं। चिन्वन्ति। वे सब चुनते हैं। सिद्धि-(१) जिष्णुः । जि+गस्नु। जि+स्नु। जिष्णु+सु। जिष्णुः। यहां जि जये (भ्वा०प०) धातु से ग्लाजिस्थश्च रस्तुः (३।२।१३८) से ग्स्नु प्रत्यय करने पर जि धातु के इक् को सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से गुण प्राप्त होता हैं किन्तु रस्तु प्रत्यय के गित् होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है। (२) भूष्णुः । भू+ग्स्नु। भू+स्नु। भूष्णु+सु । भूष्णुः । यहां भू सत्तायाम् (भ्वा०प०) धातु से 'भुवश्च' (३।२।१४०) से ग्स्नु प्रत्यय होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। (३) चितः । चि+क्त। चि+त। चित+सु। चित: । यहां चिञ् चयने (स्वा०उ०) धातु से क्त प्रत्यय करने पर सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८०) से चि धातु के इक् को गुण प्राप्त होता है किन्तु क्त प्रत्यय के कित् होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है। (४) चितवान् । चि क्तवतु। चि+तवत् । चितवत्+सु । चितवान्। यहां चि धातु से क्तवतु प्रत्यय है। शेष पूर्ववत् है। (५) मृष्ट: । मृज्+क्त। यहां मृजूष शुद्धौ (अदा०प०) धातु से क्त प्रत्यय करने पर मजेर्वृद्धिः' (७।२।११४) से मृज् धातु के इक् को वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु क्त प्रत्यय के कित् होने से वृद्धि का निषेध हो जाता है। (६) मृष्टवान् । यहां मृजूष शुद्धौ (अदा०प०) धातु से क्तवतु प्रत्यय है। शेष पूर्ववत् है। (७) चिनुतः । चि+लट् । चि+शनु+तस् । चि+नु+तस् । चिनुतः । यहां चि धातु से लट्लकार में तस् प्रत्यय और अनु विकरण प्रत्यय करने पर यह पद सिद्ध होता है। तस् प्रत्यय के परे होने पर शुनु के इक् को तथा शुनु प्रत्यय के परे होने पर चि धातु के इक् को सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।३।८४) से गुण प्राप्त होता है, किन्तु तस् प्रत्यय और श्नु प्रत्यय के ङित् होने से गुण का प्रतिषेध हो जाता है। तस् और शुनु प्रत्यय सार्वधातुकमपित् (१।२।४) से ङित् माने जाते हैं। ऐसे ही-चिन्वन्ति। (८) मृष्ट: । मृ+लट् । मृज्+शप्+तस् । मृज+o+तस् । मृ+तस् । मृष्ट: । यहां मृजूष शुद्धौ (अदा०प०) धातु से तस् प्रत्यय है। उसके परे रहने पर मृज् धातु के इक् को मृजेर्वृद्धि: (७।२।११४) से वृद्धि प्राप्त होती है, किन्तु तस् प्रत्यय के डित् होने से वृद्धि का प्रतिषेध हो जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy