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द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
अन्वयः - अजेर्वी, अघञपोरार्धधातुकयोः ।
अर्थ :- अजे: स्थाने विकल्पेन वी - आदेशो भवति, घञपोर्वर्जित
आर्धधातुके विषये ।
उदा-वी-आदेश:-प्रवेता । प्रवेतुम् । प्रवेतव्यम् । न च वी- आदेश:प्राजिता । प्राजितुम् । प्राजितव्यम् ।
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आर्यभाषा - अर्थ:- (अजेः) 'अज्' धातु के स्थान में (वा) विकल्प से (वी) वी- आदेश होता है (घञपोः) 'घञ्' और 'अप्' प्रत्यय से रहित (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में । उदा० - वी - आदेश-प्रवेता । प्रगति करनेवाला/फैंकनेवाला । प्रवेतुम् । प्रगति करने/फेंकने के लिये । प्रवेतव्यम् । प्रगति करना/फेंकना चाहिये। वी- आदेश नहीं - प्राजिता । प्राजितम् । प्राजितव्यम् । अर्थ पूर्ववत् है ।
सिद्धि - (१) प्रवेता । प्र+अज्+तृच् । प्र+वी+तृ । प्र+वे+तृ । प्रवेतृ+सु। प्रवेता । यहां प्र उपसर्गपूर्वक 'अज गतिक्षेपणयो:' (भ्वा०प०) धातु से 'वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय है। इस आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से 'अज्' धातु के स्थान में वी- आदेश होता है। 'सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७/३/८४) से धातु को गुण होता है। ऐसे ही प्रवेतुम्, प्रवेतव्यम् रूप सिद्ध करें ।
(२) प्राजिता । प्र+अज्+तृच् । प्र+अज्+इट्+तृ । प्र+अज्+इ+तृ । प्रजितृ+सु । प्राजिता ।
यहां प्र उपसर्गपूर्वक 'अज्' धातु से पूर्ववत् तृच्' प्रत्यय है। विकल्प पक्ष में इस सूत्र से 'अज्' धातु के स्थान में 'वी' आदेश नहीं होता है। 'आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७/२/३५) से 'तृच्' को 'इट्' आगम होता है। ऐसे ही प्राजितुम्, प्राजितव्यम् रूप सिद्धि करें ।
अज् (वा) -
(२२) वा यौ । ५७ ।
प०वि० वा १।१ यौ ७ । १ ।
अनु० - आर्धधातुके, अजेः इति चानुवर्तते ।
अन्वयः-अजेर्वा यावार्धधातुके ।
अर्थः-अजे: स्थाने वा-आदेशो भवति, यावार्धधातुके विषये ।
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उदा०-वायुः ।
आर्यभाषा-अर्थ- (अजे:) अज् धातु के स्थान में (वा) वा आदेश होता है, (यौ) यु प्रत्ययसम्बन्धी (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में ।
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