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द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः
४६६ से 'धातो: कर्मण: समानकर्तकादिच्छायां वा' (३।१।७) से इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय होता है। सन्यडोः' (६।११९) से धातु को द्वित्व, सन्यत:' (७।४।७९) से अभ्यास को इत्व और 'कुहोश्चुः' (७।४।६२) अभ्यास को चुत्व-ग को ज् होता है। अधिजिगापयिष' इस सन्नाद्यन्त धातु से 'वर्तमाने लट्' (३।२।१२३) से वर्तमानकाल में लट् प्रत्यय है।
(२) अध्यापिपयिषति। अधि+इड्+णिच् । अधि+इ+इ। अधि+आ+पुक्+इ। अधि+आपि। अधि+आपि+सन्। अधि+आ+पि पि+स। अधि+आ+पि पि+इट्+स। अधि+आ+ति पे+इ+स। अध्यापिपयिष। अध्यापिपयिष+लट् । अध्यापिपयिष+शप्+तिम् । अध्यापिपयिषति।
यहां अधिपूर्व इङ् धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय । विकल्प पक्ष में 'इङ्' के स्थान में 'गाङ्' आदेश नहीं होता है। क्रीजीनां णौ' (६।१।४८) से इङ् के स्थान में आकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् हैं।।
(३) अध्यजीगपत् । अधि+इड्+णिच् । अधि+गाड्+इ। अधि+गा+पुक+इ। अध+गापि। अधि:गापि+लुङ्। अधि+अट्+गापि+च्लि+। अधि+अ+गापि+चड्+तिम् । अधि+अ+ग गा प+अ+त्। अधि+अ+ग गा प+अ+त्। अधि+अ+गि+ग प्+अ+त्। अधि+अ+जि+गप्+अ+त् । अध्यजीगपत्।।
यहां अधिपूर्व 'इ' धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय है। इस आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से 'इङ्' के स्थान में गाङ्' आदेश होता है। 'अधिगापि' णिजन्त धातु से पूर्ववत् लुङ्' प्रत्यय, णिश्रिद्रुश्रुभ्य: कर्तरि चड्' (३।१।४८) से चिल' के स्थान में चङ्' आदेश, 'चङि' (६।१।११) से धातु के गा भाग को द्वित्व, हस्वः' (७।४।५९) से अभ्यास को ह्रस्व, णौ चड्युपधाया हस्व:' (७।४।१) से उपधा ह्रस्व होता है। शेष कार्य पूर्ववत् हैं।
(४) अध्यापिपत् । अधि+इ+णिच् । अधि+आ+इ। अधि+आ+पुक+इ। अधि+आपि । अधि+आपि+लुङ् । अधि+आट्+आपि+लि+ल। अध्यापि+चङ्-तिप्। अधि+आ पि पि+अ+त्। अध्यापिप्+अ+त् । अध्यापिपत्।
यहां अधिपूर्व 'इङ्' धातु से पूर्ववत् णिच्' प्रत्यय। इस आर्धधातुक विषय में विकल्प पक्ष में 'इड्र' के स्थान में गाड' आदेश नहीं होता है। क्रीजीनां णौ (६।१।४८) से 'इङ्' के स्थान में आकार आदेश होता है। शेष कार्य पूर्ववत् है। अस् (भू)
(१७) अस्तेर्भूः ।५२। प०वि०-अस्ते: ६१ भू: ११ । अनु०-आर्धधातुके इत्यनुवर्तते । अन्वय:-अस्तेर्भूरार्धधातुके।
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