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द्वितीयाध्यायस्य चतुर्थः पादः आर्यभाषा-अर्थ-(इङः) इङ् धातु के स्थान में (विभाषा) विकल्प से (गाङ्) गाङ् आदेश होता है (लुङ्लुङो:) लुङ् और लुङ्लकार सम्बन्धी (आर्धधातुके) आर्धधातुक विषय में।
उदा०-(१) लुङ्-गाङ् आदेश-अध्यगीष्ट । उसने पढ़ा। अध्यगीषाताम् । उन दोनों ने पढ़ा। अध्यगीषत । उन सबने पढ़ा। गाङ् आदेश नहीं-अध्यैष्ट । अध्यैषाताम् । अध्यैषत । अर्थ पूर्ववत् है।
(२) लुङ्-गाङ् आदेश-अध्यगीष्यत । यदि वह पढ़ता। अध्यगीष्येताम् । यदि वे दोनों पढ़ते। अध्यगीष्यन्त । यदि वे सब पढ़ते। गाङ्-आदेश नहीं-अध्यैष्यत । अध्यैष्येताम् । अध्यैष्यन्त । अर्थ पूर्ववत् है।
सिद्धि-(१) अध्यगीष्ट । अधि+इड्+लुङ्। अधि+अट्+गाड्+च्लि+लुङ् । अधि+अ+गा+सिच्+त। अधि+अ+गा+स्+त। अधि+अ+गी++ट । अध्यगीष्ट।
यहां नित्य अधि पूर्व 'इङ् अध्ययने' (अ०आ०) धातु से 'लुङ्' (३।२।११०) से सामान्य भूतकाल में लुङ्' प्रत्यय है। 'लुङ्' प्रत्ययसम्बन्धी आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से 'इड्' धातु के स्थान में गाड़' आदेश होता है। घमास्थागापाजहातिसां हलि (६।४।६६) से गा को ई-आदेश होता है। 'गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्डित्' (१।२।१) से सिच्' प्रत्यय के डित् होने से 'सार्वधातुकार्धधातुकयो:' (७।२।८४) से गुण नहीं होता है। ‘आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से 'सिच्’ के स्' को '' और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टुत्व='त' प्रत्यय को 'ट' होता है।
(२) अध्यैष्ट । अधि+इड्+लुङ्। अधि+आट्+इ+च्लि+ल्। अधि+औ+सिच्+त। अध्यै+छ+ट । अध्यैष्ट।
यहां पूर्ववत् लुङ् प्रत्यय, 'आडजादीनाम्' (६।४ १७२) से आट् आगम है। विकल्प पक्ष में इस सूत्र से इङ् के स्थान में गाङ् आदेश नहीं है। 'आटश्च' (६।१।९०) से वृद्धि होती है। 'आदेशप्रत्यययोः' (८।३।५९) से 'सिच्' के स्' को 'ए' और 'ष्टुना ष्टुः' (८।४।४१) से टुत्व='त' प्रत्यय को 'ट' होता है।
(३) अध्यगीष्यत । अधि+ इ +7 ड्। अधि+अट् +गा+स्य+ल् । अधि+अ+गा+स्य+त। अधि+अ+गी+ष्य+त। अध्यगीष्यत।
यहां लिनिमित्ते लुङ् क्रियातिपत्तौ (३।३।१३९) से तृङ्' प्रत्यय और स्यतासीललुटो:' (३।११३३) से 'स्य' प्रत्यय है। इस लुङ्'सम्बन्धी आर्धधातुक विषय में इस सूत्र से 'इड्' के स्थान में 'गाइ' आदेश होता है। पूर्ववत् 'गा' को ई-आदेश तथा गुण नहीं होता है। पूर्ववत् स्य' को मूर्धन्य होता है।
(४) अध्यैष्यत । अधि+इड्+लङ्। अधि+आट्+इ+स्य+। अधि+आ+इ+स्यन्त। अध्यै+ष्य+त। अध्यैष्यत।
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