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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
२५३ को अनुदात्त स्वर नहीं होता है-अधि करिष्यति । अपितु निपाता अनुदात्ता:' (फिट० ४।१२) से आधुदात्त प्रकृति स्वर होता है। जहां पक्ष में कर्मप्रवचनीय संज्ञा नहीं होती है वहां भी निपातैर्यद्यदि०' (८1१।३०) से अनुदात्त स्वर का निषेध होकर पूर्वपद प्रकृति स्वर ही होता है। अधिकरिष्यति।
इति निपातसंज्ञाप्रकरणम्।
परस्मैपद-संज्ञा
लः परस्मैपदम्।६६। प०वि०-ल: ६।१ परस्मैपदम् १।१ । अर्थ:-लकारादेशा: परस्मैपदसंज्ञका भवन्ति ।
उदा०-तिप्। तस् । झि। सिप्। थस् । थ। मिप्। वस्। मस्। शतृ। क्वसुः।
___ आर्यभाषा-अर्थ-(ल:) लकार के स्थान में होनेवाले आदेशों की (परस्मैपदम्) परस्मैपद संज्ञा होती है।
उदा०-तिप् । तस् । झि। सिप् । थस् । थ। मिम् । वस् । मस् । शतृ । क्वसु।
सिद्धि-(१) तिम् । तिपतस्झि०' (३।४।७८) से लकार के स्थान में तिप्' आदि आदेशों का विधान किया गया है। इस सूत्र से उनकी परस्मैपद संज्ञा की गई है।
(२) शत। लट: शतशानचावप्रथमासमानाधिकरणे (३।२।१२४) से लट् के स्थान में शतृ-आदेश का विधान किया गया है। इस सूत्र से उसकी परस्मैपद संज्ञा की गई है।
(३) क्वसु । क्वसुश्च' (३।२।१०७) से लिट' के स्थान में क्वसु'-आदेश का विधान किया है। इस सू से उसकी परस्मैपद संज्ञा की गई है। आत्मनेपद-संज्ञा
तङानावात्मनेपदम् ।१००। प०वि०-तङ्-आनौ १।२ आत्मनेपदम् १।१ । स०-तङ् च आनश्च तौ-तङानौ (इतरेतरयोगद्वन्द्व:)। अनु०-'ल:' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-लस्तङानावात्मनेपदम्। अर्थ:-लादेशौ तडानौ प्रत्ययावत्मनेपदसंज्ञकौ भवत: । 'तङ्' इति
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