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प्रथमाध्यायस्य चतुर्थः पादः
आर्यभाषा-अर्थ-(पदार्थ० ) पदार्थ, सम्भावन, अन्ववसर्ग, गर्हा और में (अपि) अपि निपात की (कर्मप्रवचनीयः) कर्मप्रवचनीय संज्ञा होती है।
उदा०
- (पदार्थ) मधुनोऽपि स्यात् । घी की भी मात्रा होनी चाहिये। (सम्भावन) अपि सिञ्चेन्मूलकसहस्रम् | वह हजार मूलियों को सींच सकता है । अपि स्तुयाद् राजानम् । वह राजा की स्तुति कर सकता है। (अन्ववसर्ग) अपि सिञ्च । तू चाहे सींच । अपि स्तुहि । तू चाहे स्तुति कर । तेरी इच्छा है । (गर्हा) धिग् जाल्मं देवदत्तम् अपि सिञ्चेत् पलाण्डुम्, अपि स्तुयाद् वृषलम् । उस नीच देवदत्त को धिक्कार है जो पलाण्डु (प्याज) को सींचता है, नीच पुरुष की स्तुति करता है। (समुच्चय) अपि सिञ्च । तू सींच भी । अपि स्तुहि । तू स्तुति भी कर ।
पदार्थ - (१) अप्रयुक्त पद के अर्थ को ग्रहण कर लेना 'पदार्थ' कहाता है । जैसे 'मधुप' का अर्थ मधु की मात्रा है। यहां अप्रयुक्त 'मात्रा' पद का अर्थ ग्रहण किया जाता है।
२८१ अर्थ
(२) सम्भावन - अधिक अर्थ के कहने से किसी व्यक्तिविशेष को प्रकट करना सम्भावन कहाता है। अन्ववसर्ग = कामचार की अनुज्ञा अर्थात् मन मर्जी करने की आज्ञा देना । गर्हा=निन्दा | समुच्चय = संग्रह |
समुच्चय
सिद्धि - (१) मधुनोऽपि स्यात् । यहां 'अपि' निपात की की कर्मप्रवचनीय संज्ञा होने से उपसर्ग संज्ञा नहीं रहती है। अत: यहां 'उपसर्गप्रादुर्भ्यामस्तिर्यच्परः' (८1३1८७) से उपसर्ग - आश्रित सकार को षत्व नहीं होता है।
(२) अपि सिञ्चेन्मूलकसहस्रम् | यहां 'अपि' निपात की कर्मवचनीय संज्ञा होने सेउपसर्ग संज्ञा नहीं रहती। अत: यहां 'उपसर्गात् सुनोति०' (८ | ३ |६५) से उपसर्ग-आश्रित सकार को षत्व नहीं होता है। इसी प्रकार सर्वत्र समझें ।
(३) अपि सिञ्च, अपि स्तुहि। यहां सेचन और स्तुति क्रिया का एक ही कर्ता में समुच्चय किया गया है कि तू सींच भी और स्तुति भी कर ।
(१५) अधिरीश्वरे । ६७ ।
ब्रह्मदत्तः ।
प०वि०- अधि : १ ।१ ईश्वरे ७ । १ ।
अन्वयः - ईश्वरेऽधिर्निपातः कर्मप्रवचनीय: ।
अर्थ:- ईश्वरे= स्व-स्वामिसम्बन्धेऽर्थेऽधिर्निपातः कर्मवचनीयसंज्ञको भवति ।
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उदा०-(स्वामिनि) अधि ब्रह्मदत्ते पञ्चालाः । ( स्वे) अधि पञ्चालेषु
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