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पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् आख्याता
(६) आख्यातोपयोगे।२६। प०वि०-आख्याता ११ उपयोगे ७१। अनु०-'अपादानम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-उपयोगे आख्याता कारकमपादानम् ।
अर्थ:-उपयोगे नियमपूर्वके विद्याग्रहणे साध्ये य आख्याता प्रतिपादयिता, तत्कारकमपदानसंज्ञकं भवति।
उदा०-उपाध्यायाद् अधीते। उपाध्यायाद् आगमयति ।
आर्यभाषा-अर्थ-(उपयोगे) नियमपूर्वक विद्या ग्रहण करने में (आख्याता) जो उसका प्रतिपादक है, (कारकम्) उस कारक की (अपादानम्) अपादान संज्ञा होती है। उपाध्यायाद् अधीते। उपाध्याय से पढ़ता है। उपाध्यायाद् आगमयति । उपाध्याय से विद्या प्राप्त करता है।
सिद्धि-शिष्य उपाध्यायाद् अधीते। शिष्य अपने उपाध्याय से नियमपूर्वक विद्या ग्रहण करता है। यहां नियमपूर्वक विद्या के ग्रहण करने में उसका प्रतिपादक उपाध्याय है, अत: उसकी अपादान संज्ञा होती है और उसमें 'अपादाने पञ्चमी' (२।३।२८) से पञ्चमी विभक्ति हो जाती है। प्रकृतिः
(७) जनिकर्तुः प्रकृतिः।३०। प०वि०-जनि-कर्तुः ६१ प्रकृति: १।१। स०-जने: कर्ता इति जनिकर्ता, तस्य-जनिकर्तुः (षष्ठीतत्पुरुषः) । अनु०-'अपादानम्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-जनिकर्तुः प्रकृति: कारकमपादानम्।
अर्थ:-जनिधातोर्य: कर्ता, तस्य या प्रकृति: कारणम्, तत् कारकम् अपादानसंज्ञकं भवति।
उदा०-शृगाद् शरो जायते। गोमयाद् वृश्चिको जायते।
आर्यभाषा-अर्थ-(जनिकर्तुः) जनि' धातु का जो कर्ता है, उसकी (प्रकृतिः) जो प्रकृति अर्थात् कारण है, (कारकम्) उस कारक की (अपादानम्) अपादान संज्ञा होती है।
उदा०-शृङ्गाद् शरो जायते। सींग से बाण पैदा होता है। गोमयाद् वृश्चिको जायते। गोबर से बिच्छू पैदा होता है।
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