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भूमिका डेढ़ वर्ष में महाभाष्य पढ़कर तीन वर्ष में पूर्ण वैयाकरण होकर वैदिक और लौकिक शब्दों को व्याकरण से जानकर अन्य शास्त्रों को शीघ्र सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं, किन्तु जैसा बड़ा परिश्रम व्याकरण में होता है वैसा श्रम अन्य शास्त्रों में नहीं करना पड़ता ।
५. अष्टाध्यायी की महिमा - जितना बोध अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य के पढ़ने से ३ वर्षों में होता है उतना बोध कुग्रन्थ अर्थात् सारस्वत चन्द्रिका, कौमुदी और मनोरमा आदि पढ़ने से ५० पचास वर्ष में भी नहीं हो सकता, क्योंकि महाशय महर्षि लोगों ने सहजता से जो महान् विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किया है, वैसा इन क्षुद्राशय मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्योंकर हो सकता है ।
६. आर्ष ग्रन्थों की महिमा - महर्षि लोगों का आशय, जहां तक हो सके वहां तक सुगम और जिसके ग्रहण करने में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है, और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहां तक बने वहां तक कठिन रचना करनी, जिसको बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे पहाड़ का खोदना और कौड़ी SAT MPभ होना, और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि जैसा एक गोता लगाना और बहुमूल्य मोतियों का पाना ।
७. परित्याज्य ग्रन्थ - अब जो परित्याग के योग्य ग्रन्थ हैं, उनका परिगणन संक्षेप से किया जाता है अर्थात् जो-जो नीचे ग्रन्थ लिखेंगे वे वे जालग्रन्थ समझने चाहिएं। शिक्षा - 'अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा' इत्यादि शिक्षा ग्रन्थ । व्याकरणकातन्त्र, सारस्वत चन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमा आदि ।
अध्ययन-काल (व्याकरण)
८.
ग्रन्थ का नाम
शिक्षा
अष्टाध्यायी (प्रथमावृत्ति) धातुपाठ आदि
अष्टाध्यायी (द्वितीयावृत्ति)
महाभाष्य
सत्यार्थप्रकाश
वर्ष
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संस्कारविधि
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योग
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९. प्रकाशित ग्रन्थ- स्वामी दयानन्द ने पाणिनीय अष्टाध्यायी सम्बन्धी निम्नलिखित १४ ग्रन्थ संस्कृत और आर्यभाषा में लिखकर वैदिक यन्त्रालय अजमेर से प्रकाशित किये हैं- (१) वर्णोच्चारण शिक्षा । ( २ ) सन्धिविषय । (३) नामिक । (४) कारकीय । (५) सामासिक । (६) स्त्रैणताद्धित । (७) अव्ययार्थ । (८) आख्यातिक । (९) सौवर। (१०) पारिभाषिक। (११) धातुपाठ । (१२) गणपाठ । (१३) उणादिकोष (संस्कृत
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