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प्रथमाध्यायस्य तृतीयः पादः
१३६ (२) 'धातु' यह पूर्वाचार्यों की संज्ञा है। उन्होंने क्रियावाची शब्दों की यह संज्ञा
की है।
इत्संज्ञाप्रकरणम् अनुनासिकोऽच्
(१) उपदेशेऽजनुनासिक इत्।२। प०वि०-उपदेशे ७।१ अच् १।१ अनुनासिक: ११ इत् १।१ । अन्वय:-उपदेशेऽनुनासिकोऽच् इत्। अर्थ:-पाणिनीय-उपदेशेऽनुनासिकोऽच् इत्-संज्ञको भवति । उदा०-(ए) वृद्धौ) एधते। (स्पर्ध संघर्षे) स्पर्धते।
आर्यभाषा-अर्थ-(उपदेशे) पाणिनिमुनि के उपदेश में (अनुनासिक:) अनुनासिक गुणवाले (अच्) स्वर की (इत्) इत् संज्ञा होती है।
उदा०-(एर्धं वृद्धौ) एधते। वह बढ़ता है। (स्पर्ध” संघर्षे) स्पर्धत। वह संघर्ष करता है।
सिद्धि-(१) एधते। एधैं+लट् । एध्+शप्+त। एध्+अ+ते। एधते।
यहां 'ए) वृद्धौ' (भ्वा०आ०) धातु से वर्तमाने लट्' प्रत्यय, होने पर इस सूत्र से (ए)' धातु के अनुनासिक 'अँ' स्वर का लोप होता है। तिप्तस्झि०' (३।४।७८) से ल' के स्थान में त्' आदेश और कर्तरि श' (३।१।६८) से विकरण 'शप्' प्रत्यय होता है। ऐसे ही-स्पर्धते।
विशेष-अष्टाध्यायी, धातुपाठ, उणादिकोष, गणपाठ और लिङ्गानुशासन के रूप में पाणिनिमुनि का उपदेश आज उपलब्ध होता है। उसमें इत् (लोप) किये जानेवाले स्वर का अनुनासिक गुण लगाकर उपदेश नहीं किया गया है, किन्तु प्रतिज्ञाऽनुनासिकक्या: पाणिनीया:' पाणिनि के शिष्य जिस स्वर की इत् संज्ञा करनी है उसे गुरु के प्रतिज्ञामात्र (कथनमात्र) से अनुनासिक मानते हैं कि अमुक स्वर अनुनासिक है और उसकी इत् संज्ञा कर लेते हैं। यहां 'ए)' धातु में समझने के लिये अनुनासिक गुण दिखा दिया है। अन्तिम-हल
(२) हलन्त्य म् ।। प०वि०-हल् ११ अन्त्यम् १।१ । अनु०-उपदेशे, इत्' इत्यनुवर्तते ।। अन्वय:-उपदेशेऽन्त्यं हल् इत्। अर्थ:-पाणिनीय-उपदेशेऽन्तिमं हल् इत्संज्ञकं भवति ।
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