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________________ ११८ पाणिनीय-अष्टाध्यायी-प्रवचनम् यहां 'डुकृञ् करणे (त०उ०) धातु से ‘ण्वुल्तृचौ' (३।१।१३३) से कृत् ण्वुल प्रत्यय, 'युवोरनाको' (७।१।१) से वु' के स्थान में 'अक' आदेश और 'अचो मिति (७।२।११५) से अङ्ग को वृद्धि होती है। ‘ण्वुल' कृत्-संज्ञक प्रत्यय है। कारक शब के कृदन्त होने से उसकी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। प्रातिपदिक संज्ञा होने से कारक' शब्द से स्वौजसः' (४।१।२) से 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं। इसी प्रकार हा हरणे' (भ्वादि०) धातु से हारकः' शब्द सिद्ध करें। (२) कर्ता। कृ+तृच् । कर+तृ। कर्तृ+सु। कर्ता। यहां पूर्ववत् कृ धातु से एल्तचौं' (३।१।१३३) से तृच्' प्रत्यय करने पर सार्वधातुकार्धधातुकयोः' (७।३।८४) से अङ्ग को गुण होता है। तृच्' प्रत्यय कृत्संज्ञक है। कर्तृ शब्द के कृदन्त होने से उसकी प्रातिपदिक संज्ञा होती है। प्रातिपदिक संज्ञा होने से पूर्ववत् 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं। इसी प्रकार हृञ् हरणे' धातु से हर्ता शब्द सिद्ध करें। (३) औपगवः । उपगु+अण् । औपगु+अ। औपगो+अ। औपगव्+अ । औपगव+अ। औपगव+सु। औषगवः। यहां उपगु शब्द से तस्यापत्यम्' (४।१।९२) से अपत्य अर्थ में तद्धित अण्प्रत्यय, तद्धितेष्वचामादेः' (७।२।११७) से अङ्ग को आदिवृद्धि और 'ओर्गुण:' (६।४।१४६) से अङ्ग को गुण होता है। 'अण' प्रत्यय के तद्धित होने से 'औपगव:' की प्रातिपदिक संज्ञा होती है और उससे पूर्ववत् 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं। इसी प्रकार कपटु' शब्द से कापटव: शब्द सिद्ध करें। (४) राजपुरुषः। राज्ञः पुरुष इति राजपुरुषः। यहां 'षष्ठी (२।२।८) से षष्ठीतत्पुरुष समास है। यहां समास की प्रातिपदिक संज्ञा की है। अत: इससे पूर्ववत् 'सु' आदि प्रत्यय होते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मणस्य कम्बल इति ब्राह्मणकम्बलः । विशेष-(१) 'अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपदिकम् (१।४।४५) से प्रत्यय की प्रातिपदिक संज्ञा का पर्युदास प्रतिषेध किया गया था किन्तु इस सूत्र के द्वारा कृत् और तद्धित प्रत्यय की प्रातिपादिक संज्ञा का विधान किया गया है। (२) समास में पदों का समुदाय होता है। अर्थवान् पदसमुदाय में केवल समास की ही प्रातिपदिक संज्ञा का नियम किया गया है। इससे वाक्यरूप पदसमुदाय की प्रातिपदिक संज्ञा नहीं होती है-देवदत्तो वेदं पठति। प्रातिपदिकस्य हस्वः (३) ह्रस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य ।४७। प०वि०-ह्रस्व: ११ नपुंसके ७१ प्रातिपदिकस्य ६।१। अन्वय:-नपुंसके प्रातिपदिकस्य ह्रस्व:। , अर्थ:-नपुंसकलिङ्गेऽर्थे वर्तमानस्य प्रातिपदिकस्य ह्रस्वो भवति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003296
Book TitlePaniniya Ashtadhyayi Pravachanam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanacharya
PublisherBramharshi Swami Virjanand Arsh Dharmarth Nyas Zajjar
Publication Year1997
Total Pages590
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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