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प्रथमाध्यायस्य द्वितीयः पादः लुङलिटो:' (६।४।८८) से 'भू' धातु को वुक्’ का आगम तथा 'अभ्यासे चर्च (८।४।५८) से 'भू' धातु के अभ्यास भकार को जश् बकार होता है।
विशेष-पाणिनि मुनि अपने शब्दशास्त्र में 'इश्तिपौ धातुनिर्देशे इस गुरुवचन के अनुसार धातु का निर्देश इक' प्रत्यय और शितप्' प्रत्यय लगाकर करते हैं। जैसे कि यहां इन्धि धातु का इक्' प्रत्यय और भू धातु का श्तिप्' प्रत्यय लगाकर निर्देश किया है। अन्यत्र भी ऐसा ही समझें। क्त्वाप्रत्यय:
(३) मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसः क्त्वा ।७। प०वि०-मृड-मृद-गुध-कुष-क्लिश-वद-वस: ५ ।१ क्त्वा ११।
सo-मृडश्च मृदश्च गुधश्च कुषश्च क्लिशश्च वदश्च वस् च एतेषां समाहार:-मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवस, तस्मात्-मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवस: (समाहारद्वन्द्वः)।
अनु०-'कित्' इत्यनुवर्तते। अन्वय:-मृड० वस: क्त्वा कित्।
अर्थ:-मृडमृदगुधकुषक्लिशवदवसिभ्यो धातुभ्य: क्त्वा प्रत्यय: किद्वद् भवति।
- उदा०-(मृड) मृडित्वा । (मृद) मृदित्वा । (गुध) गुधित्वा । (कुष) कुषित्वा। (क्लिश) क्लिशित्वा। (वद) उदित्वा। (वस) उषित्वा।
आर्यभाषा-अर्थ-मृड, मृद, गुध, कुष, क्लिश, वद और वस धातु से परे (क्त्वा) क्त्वा प्रत्यय (कित्) कित् होता है।
. उदा०-(मृड) मृडित्वा। सुखी करके। (मृद) मृदित्वा। मसलकर। (गुध) गुधित्वा । रुष्ट होकर । (कुष) कुषित्वा । निष्कर्ष निकालकर। (क्लिश) क्लिशित्वा । क्लेश पाकर। (वद) उदित्वा। बोलकर। (वस) उषित्वा। रहकर।
सिद्धि-(१) मृडित्वा । मृड्+क्त्वा । मृड्+इट्+त्वा । मृड्+इ+त्वा । मृडित्वा+सु। मृडित्वा। - यहां मृड सुखने (तु०प०) धातु से समानकर्तृकयो: पूर्वकाले (३।४।२१) से क्त्वा' प्रत्यय, आर्धधातुकस्येड्वलादेः' (७।२।३५) से इट्' का आगम होता है।
यहां क्त्वा' प्रत्यय के कित् होने से पुगन्तलघूपधस्य च (७।३।८६) से अग को प्राप्त गुण का डिति च' (१।१।५) से निषेध हो जाता है।
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