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प्रथमाध्यायस्य प्रथमः पादः से धकार को द्विर्वचन और 'झलां जश् झशि' (८।४।५३) से पूर्व धकार को जश् दकार होता है। यहां यण परनिमित्तक अय्-आदेश है, यह 'अनचि च' (८।४।४७) से धकार को द्विर्वचन करने में स्थानिवत् नहीं होता है। यदि यह स्थानिवत् हो जाये तो उक्त द्विर्वचन नहीं हो सकता। इसी प्रकार मद्ध्वत्र ।
(३) वरेविधि। (यायावर:) या+यङ्। या या+य। या या य+वरच् । या या य+वर। या या+वर। या या व र+सु। यायावरः। यहां 'या गतौ' (अदा०प०) धातु से धातोरेकाचो हलादे: क्रियासमभिहारे यङ्' (३।२।२२) से यङ्' प्रत्यय, उससे यश्च यङः' (३।२।१७६) से कृत् वरच् प्रत्यय, 'अतो लोप:' (६।४।४८) से अकार का लोप, लोपो व्योर्वलि' (६।१।६६) से य' का लोप होता है। यहां अकार-लोप परनिमित्तक अच्-आदेश है। यदि यह स्थानिवत् हो जाये तो यङ्' को मानकर आतो लोप इटेि च' (६।४।६४) से आकार का लोप हो जाये।
(४) यलोपविधि। (कण्डूति:) कण्डू+यक्। कण्डूय+क्तिच् । कण्डूय+ति। कण्डू+ति। कण्डूति+सु। कण्डूतिः। यहां कण्ड्वादिभ्यो यक्' (३।१।२७) से 'यक्' प्रत्यय उससे क्तिचक्तौ च संज्ञायाम् (३।३।१७४) से क्तिच् प्रत्यय, अतो लोप:' (६।४।४८) से परनिमित्तक अकार का लोप, लोपो व्योर्वलि' (६।११६६) से य का लोप होता है। यदि य के लोप की पूर्वविधि करने में अकार-लोप रूप अच-आदेश स्थानिवत् हो जाये तो य' का लोप न हो सके। अकार-लोप के स्थानिवत् न होने से य का लोप हो जाता है।
(५) स्वरविधिः। (चिकीर्षक:) चिकीर्ष+ण्वुल। चिकीर्ष+अक्। चिकीर्षक+सु। चिकीर्षक: । यहां सनन्त 'चिकीर्ष' धातु से 'वुल्तृचौं' (३।१।१३३) से वुल् प्रत्यय, 'अतो लोपः' (६।४।४८) से अकार का लोप होता है। उसके स्थानिवत् न होने से लिति' (६।१।१९३) से प्रत्यय से पूर्ववर्ती अच् ईकार को उदात्त स्वर हो जाता है। यदि अकार लोप रूप परनिमित्तक अच्-आदेश स्थानिवत् हो जाये तो प्रत्यय से पूर्ववर्ती ईकार को उदात्त स्वर नहीं हो सकता। अकार लोप के स्थानिवत् न होने से ईकार को उदात्त स्वर हो जाता है। इसी प्रकार जिहीर्षक: ।।
(६) सवर्णविधि । (शिण्डि) शिष्+लोट् । शिष्+सिप्। शिष्+हि। शिष्+धि। शिष्+ढि । शि श्नम् ष्+ढि । शि न +ढि। शिन् ष्+ढि। शिढि। शिण ढि। शिद् ढि। शिढि। शिण ढि। शिण्ढि। यहां शिष्ल विशेषणे (रुधा०प०) धातु से
लोट् च' (३।३।१६२) से लोट् प्रत्यय, तिप तस् झि०' (३।४।७८) से ल के स्थान में तिप् आदेश, सेपिच्च' (३।४।८७) से 'सि' के स्थान में अपित् हि' आदेश, हुझल्भ्यो हेर्धि:' ६।४।८७) से हि' को धि' आदेश, रुधादिभ्यः श्नम्' (३।४।७८) से विकरण 'श्नम्' प्रत्यय, ‘श्नसोरल्लोप:' (६।४।१११) से परनिमित्तक श्नम् के अकार का लोप, 'नश्चापदान्तस्य झलि' (८।३।२४) से पूर्वविधि न् को अनुस्वार, अनुस्वारस्य
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