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कुन्दकुन्दाचार्यविरचितः
प्रशस्ति ।
नन्दकारी स्वभावात् ॥ १८ ॥ पद्मकीर्तिमुनेः शिष्यो गुणरत्नमहोनिधिः । ब्रह्मचारी हरीराजः शीलवतविभूषितः ॥ १९ ॥ इति प्रशस्तिः ।
गुणरत्नानां नमस्त्रिभुवनेन्दवे ॥ ७ ॥ त्रिभुवनचन्द्रं चन्द्रं नौमि महासंयमोत्तमं शिरसा । यस्योदयेन जगतां स्वान्ततमोराशिकृन्तनं कुरुते ॥ ८ ॥ इति प्रशस्तिः ।
भाषाकारकी प्रशस्ति ।
दोहा - मूलग्रंथकरता भए, कुंदकुंद मतिमान । अमृतचंद्र टीका करी, देवभाष परवान ॥ १ ॥ जैसे करता मूलकौ, तैसौ टीकाकार । तातैं अतिसुंदर सरस, बरतै प्रवचनसार ॥ २ ॥ सकलतत्त्व पर कासिनी, तत्त्वदीपिका नाम । टीका सरसुति दे विकी, यह टीका अभिराम ॥३॥ चौपाई - बालबोध यह कोनी जैसे । सो तुम सुनहु कहूं मैं तैसे ॥
नगर आगरे मैं हितकारी । कँवरपाल ग्याता अविकारी ॥ ४ ॥ तिन विचार जियमैं इह कीनी । जो भाषा इह होइ नवीनी ॥ अल्पबुद्धि भी अरथ बखाने । अगम अगोचर पद पहिचानै ॥ ५ ॥ यह विचार मनमैं तिन राखी । पांडे हेमराजलौं भाखी ॥ आगें राजमल्लनें कीनी । समयसारभाषा रसलीनी ॥ ६ ॥ अब जो प्रवचनकी है भाखा । तौ जिनधर्म वधै बहु-साखा ॥ ता कर, विलंब न कीजै । परमभावना अंगफल लीजै ॥ ७ ॥ दोहा - अवनीपति बंदहिं चरण, सुयण-कमल विहसंत ।
साहजिहांदिनकर-उदै, अरिगण-तिमिर नसंत ॥ ८ ॥ सोरठा - निज सुबोध अनुसार, ऐसैं हित उपदेशसौं ।
रची भाष अविकार, जयवंती प्रगटहु सदा ॥ ९ ॥ हेमराज हिय आनि, भविकजीवके हित भणी । जिनवर आण प्रमानि, भाषा प्रवचनकी करी ॥ १० ॥ दोहा - सत्रह से नव उत्तर, माघ मास सित पाख । पंचमि आदितवारको, पूरन कीनी भाख षट्सहस्र- सत-तीन है, संख्या ग्रंथप्रमान |
११ ॥
विदुष विवेकविचारिकरि, सुणिज्यो पुरुष प्रधान ॥ १२ ॥
इस प्रकार प्रशस्ति पूर्ण हुई ।
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समाप्तोऽयं ग्रन्थः
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