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________________ ३३८ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० ७५व्यनयेनायोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थलक्ष्योन्मुखानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवयंसंहितावस्थालक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवय॑गुणकार्मुकान्तरलवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैः परद्रव्यक्षेत्रकालभावयुगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्वास्तित्वनास्तिववदवक्तव्यम् ९ । विकल्पनयेन शिशुकुमारस्थविरैकपुरुषवत्सविकल्पम् १० । अविकल्पनयेनैकपुरुषमात्रबदविकल्पम् ११। नामनयेन तदात्मवत् शब्दब्रह्मामर्शि १२। स्थापनानयेन मूर्तिववत्सकलपुद्गलालम्बि १३ । द्रव्यनयेन माणवकष्ठिश्रमणपार्थिववदनागतातीतपर्यायोद्धासि १४ । भावनयेन पुरुषायितप्रवृत्तयोषिद्वत्तदाबपर्यायोल्लासि १५ । सामान्यनयेन हारस्रग्दामसूत्रवद्वयापि १६ । विशेषनयेन तदेकमुक्ताफलवव्यापि १७ । नित्यनयेन नटधुववदवस्थायि १८ । अनित्यनयेन रामरावणवदनवस्थायि १९ । सर्वगतनयेन विस्फारिताक्षचक्षुर्वत्सर्ववति २० । असर्वगतनयेन मीलिताक्षचक्षुर्वदात्मवति २१ । शून्यनयेन शून्यागारवत्केवलोद्भासि २२ । अशून्यनयेन लोकाक्रान्तनौवन्मिलितोद्भासि २३ । विविक्षितैकदेहस्थितम् । उपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन काष्ठासनाद्युपविष्टदेवदत्तवत्समवशरणस्थितवीतरागसर्वज्ञवद्वा विवक्षितैकग्रामगृहादिस्थितम् । इत्यादि परस्परसापेक्षानेकनयैः प्रमीयमाणं व्यवहियमाणं क्रमेण मेचकस्वभावविवक्षितैकधर्मव्यापकत्वादेकस्वभावं भवति । तदेव जीवद्रव्यं प्रमाणेन प्रमीयमाणं मेचकस्वभावानामनेकधर्माणां युगपद्व्यापकचित्रपटवदनेकस्वभावं भवति । एवं नयप्रमाणाभ्यां तत्त्वविचारकाले महाराज हैं । भावनयकर वही आत्मा जिस भावरूप परिणमता है, उस भावसे तन्मय हो जाता है, जैसे पुरुषाधीन स्त्री विपरीत संभोगमें प्रवर्तती हुई उस पर्यायरूप होती है, उसी प्रकार आत्मा वर्तमान पर्यायरूप होता है । सामान्यनयकर अपने समस्त पर्यायोंमें व्यापी है, जैसे हारका सूत सब मोतियों में व्यापी है। विशेषनयकर वही द्रव्य एक पर्यायकर कहा जाता है, जैसे उस हारका एक मोती . सब हारोंमें अव्यापी है । नित्यनयकर ध्रौव्यरूप है, जैसे नट यद्यपि अनेक स्वांग रचता है, तो भी नट एक है, उसी तरह नित्य है। अनित्यनयकर वही द्रव्य अवस्थान्तरकर अनवस्थित है, जैसे नट राम रावणादिके स्वांगकर अन्यका अन्य होजाता है। सर्वगतनयकर सकलपदार्थवर्ती है, जैसे खुली आँख समस्त घट पटादि पदार्थोंमें प्रवर्तती है । असर्वगतनयकर अपने में ही प्रवृत्ति करती है, जैसे बंद किया हुआ नेत्र अपनेमें ही मौजूद रहता है । शून्यनयकर केवल एक ही शोभायमान है, जैसे शून्य घर एक ही है । अशून्यनयकर अनेकोंसे मिला हुआ शोभता है, जैसे अनेक लोगों से भरी हुई नाव शोभती है । ज्ञान ज्ञेयके अभेद कथनरूप नयकर एक है, जैसे अनेक ईंधनरूप परिणत हुई आग एक है । ज्ञानज्ञेयके भेदकथनरूपनयकर अनेक है, जैसे आरसी ( दर्पण) अपने अनेक घट पटादि पदार्थोंके प्रतिबिम्बसे अनेकरूप होती है । नियतनयकर अपने निश्चित स्वभावको लिये हुए है, जैसे जल अपने सहज स्वभावकर शीतलता लिए होता है । अनियतनयकर अनिश्चित स्वभाव है, जैसे पानी आगके सम्बन्धसे उष्ण हो जाता है। स्वभावनयकर किसीका बनाया हुआ नहीं होता, जैसे स्वभावकर कांटा विना बनाया हुआ तीखा (पैना) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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