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________________ प्रवचनसारः ३३७ अस्तित्वनास्तिवनयेनायोमयानयोमगुणकार्मुकान्तरालवय॑गुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखपाक्तनविशिखवत् क्रमतः स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभारस्तित्वनास्तित्ववत् ५। अवक्तव्यनयेनायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवय॑संहितावस्थलक्ष्योन्मुख लक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् युगपत्स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैरवक्तव्यम् ६ । अस्तिवावक्तव्यनयेनायोमयगुणकार्मकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवर्त्यगुणकार्मुकान्तरालबतिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् स्वद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत् स्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्वास्तित्ववदवक्तव्यम् ७। नास्तिवावक्तव्यनयेनानयोमयागुणकार्मुकान्तरालवय॑संहितावस्थालक्ष्योन्मुखायोमयानयोमयगुणकार्मुकान्तरालवयंगुणकार्मुकान्तरालवर्तिसंहितावस्थासंहितावस्थलक्ष्योन्मुखालक्ष्योन्मुखप्राक्तनविशिखवत् परद्रव्यक्षेत्रकालभावैर्युगपत्वपरद्रव्यक्षेत्रकालभावैश्च नास्तिखवदवक्तव्यम् ८। अस्तिखनास्तिखावक्ततदेवाशुद्धनिश्चयनयेन सोपाधिस्फटिकवत्समस्तरागादिविकल्पोपाधिसहितम् । शुद्धसद्भूतव्यवहारनयेन शुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णानामाधारभूतपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानादिशुद्धगुणानामाधारभूतम् । तदेवाशुद्धसभूतव्यवहारनयेनाशुद्धस्पर्शरसगन्धवर्णाधारभूतद्वयणुकादिस्कन्धवन्मतिज्ञानादिविभावगुणानामाधारभूतम् । अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनयेन द्वयणुकादिस्कन्धसंश्लेशबन्धस्थितपुद्गलपरमाणुवत्परमौदारिकशरीरे वीतरागसर्वज्ञवद्वा चतुष्टयकर लोहमई बाण अस्तित्वरूप है, उसी प्रकार स्वचतुष्टयकर आत्मा अस्तित्वरूप है । वही आत्मा नास्तित्वनयकर पर द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावसे नास्तित्वरूप है, जैसे वही लोहमई बाण परचतुष्टयसे लोहमई नहीं है, धनुष और डोराके बीचमें नहीं है, साधनेका समय अन्य नहीं है, और निशानेके सामने नहीं है, ऐसे वही लोहमई बाण परचतुष्टय नयकर नास्तित्वरूप है, उसी प्रकार परचतुष्टयसे आत्मा नहीं है । वही आत्मा अस्तिनास्तित्वनयसे स्वचतुष्टय परचतुष्टयके क्रमसे अस्तिनास्तिरूप है, जैसे वही बाण स्वचतुष्टय परचतुष्टयको क्रम-विवक्षासे अस्तिनास्तिरूप होता है। वही आत्मा अवक्तव्यनयकर एक ही समय स्वचतुष्टय परचतुष्टय अवक्तव्य है, जैसे वही बाण स्वपरचतुष्टयकर अवक्तव्य साधता है। वही आत्मा अस्तिअवक्तव्यनयकर स्वचतुष्टयकर और एक ही बार स्वपरचतुष्टयकर अस्तिअवक्तव्यरूप बाणके दृष्टान्तसे समझ लेना । नास्तिअवक्तव्यनयकर वही आत्मा परद्रव्य, क्षेत्र, काल भावोंकर और एक ही समय स्वपरचतुष्टयकर नास्तिअवक्तव्यरूप बाणके दृष्टान्तसे जान लेना । अस्तिनास्तिअवक्तव्यनयकर वही आत्मा स्वचतुष्टयकर परचतुष्टयकर और एक ही बार स्वपरचतुष्टयकर बाणकी तरह अस्तिनास्तिअवक्तव्यरूप सिद्ध होता हैं । विकल्पनयकर वही आत्मा भेद लिये हुए है, जैसे एक पुरुष, कुमार, बालक, जवान, वृद्ध भेदोंसे सविकल्प होता है। अविकल्पनयकर वही आत्मा अभेदरूप है, जैसे वही पुरुष अभेदरूप है । नामनयकर वही आत्मा शब्दब्रह्मसे नाम लेके कहा जाता है । स्थापनानयकर वही आत्मा पुद्गलका सहारा लेकर स्थापित किया जाता है । जैसे मूर्तीक पदार्थकी स्थापना है । द्रव्यनयकर वही आत्मा अतीत अनागत पर्यायकर कहाजाता है, जैसे श्रेणिकराजा तीर्थंकर प्रव. १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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