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________________ ५२] प्रवचनसारः ३१५ शुद्धेषु जैनेषु शुद्धात्मज्ञानदर्शनप्रवृत्तवृत्तितया साकारानाकारचर्यायुक्तेषु शुद्धात्मोपलम्भेतरसकलनिरपेक्षतयैवाल्पलेपाप्यप्रतिषिद्धा न पुनरल्पलेपेति सर्वत्र सर्वथैवाप्रतिषिद्धा, तत्र तथामवृत्त्याशुद्धात्मवृत्तित्राणस्य परात्मनोरनुपपत्तेरिति ॥ ५१ ॥ अथ प्रवृत्तेः कालविभागं दर्शयति रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिहा समणं साहू पडिवज्जदु आदसत्तोए ॥५२॥ रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् । दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ॥ ५२ ॥ यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्तेः श्रमणस्य तत्पच्यावनहेतोः कस्याप्युपसर्गस्योपनिपातः सहितोपकारं दयासहितं धर्मवात्सल्यम् । यदि किम् । लेयो जदि वि अप्पो “सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ" इति दृष्टान्तेन यद्यप्यल्पलेपः स्तोकसावयं भवति । केषां करोतु । जेण्हाणं (?) निश्चयव्यवहारमोमोक्षमार्गपरिणतजैनानाम् । कथम् । णिरवेक्खं निरपेक्षं शुद्धात्मभावनाविनाशकख्यातिपूजालाभवाञ्छारहितं यथा भवति । कथंभूतानां जनानाम् । सागारणगारचरियजुत्ताणं सागारानागारचर्यायुक्तानां श्रावकतपोधनाचरणसहितानामित्यर्थः ॥ ५१ ॥ कस्मिन्प्रस्तावे वैयावृत्त्यं कर्तव्यमित्युपदिशति-पडिवज्जदु प्रतिपद्यतां स्वीकरोतु । कया । आदसतीए स्वशक्त्या । स कः कर्ता । साहू रत्नत्रयभावनया स्वात्मानं साधयतीति साधुः । कम् । समणं जीवितमरणादिसमपरिणतत्वाच्छमणस्तं श्रमणम् । दिवा दृष्ट्वा । कथंभूतम् । रूढं रूढं व्याप्तं पीडितं कदर्थितम् । केन रोगेण वा अनाकुलत्वलक्षणपरमात्मनो बंधता है, परंतु तो भी दोष नहीं है । भावार्थ-जो यह दयाभावकर परोपकाररूप प्रवृत्ति कही है, वह अनेकान्तसे पवित्र है चित्त जिनका ऐसे उत्तम जैनी यती श्रावकोंमें करनी योग्य है, शुद्धात्मकी प्राप्तिसे अन्य समस्त शुभ फलकी वाञ्छासे रहित सहज ही जो अल्पकर्म लेप भी हो, तो भी अच्छा है, और जो शुद्धात्माकी प्राप्तिसे रहित मिथ्यादृष्टि हैं, उनकी सेवादिक, निषेध की गई है । जो उनकी सेवादिकसे थोड़ा भी कर्मबंध है, तो भी निषेध है, क्योंकि उन मिथ्यादृष्टियोंकी सेवासे न तो अपनेको शुद्धात्मतत्त्वकी प्राप्ति है, और न उनके शुद्धात्म तत्वकी रक्षा है, दोनों जगह धर्मकी वृद्धि नहीं है, इससे उसका निषेध हैं ॥५१॥ आगे किस समय धर्मात्माओंके वैयावृत्त्यादिक क्रिया होती है, यह कहते हैं[साधुः] शुभोपयोगी मुनि [रोगेण रोगकर [वा] अथवा [क्षुधया] भूखकर [वा] अथवा [तृष्णया] प्यासकर [वा] अथवा [श्रमेण] परीषहादिकके खेदकर [रूढं] पीडित हुए [श्रमणं] महामुनीश्वरको [दृष्ट्रा] देखकर [आत्मशत्तया] अपनी शक्तिके अनुसार [प्रतिपद्यता] वैयावृत्त्यादिक क्रिया करो। यही सेवादिकका समय जानना । भावार्थ-जो मुनि अच्छी तरह शुद्धस्वरूपमें लीन हुए हैं, उनके किसी एक संयोगसे स्वरूपसे चलायमान होनेका कारण कोईएक उपसर्ग आगया हो तो वह शुभोपयोगी मुनिका वैयावृत्त्यादिकका काल है। उस समय ऐसा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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