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________________ ३०२ कुन्दकुन्दविरचितः परमाणुप्रमाणं वा मूर्च्छा देहादिकेषु यस्य पुनः । विद्यते यदि स सिद्धिं न लभते सर्वागमधरोऽपि ॥ ३९ ॥ यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टमशेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्चागमज्ञातत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीरादिमूच्छ परक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदा तावन्मात्रमोहमलकलङ्ककीलिकाकीलितैः कर्मभिरविमुच्यमानो न सिद्ध्यति । अत आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्व यौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव ।। ३९ ।। अथागमज्ञानतत्त्वार्थ श्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयौगपद्यं साधयति [अ० ३, गा० ३९*२१ पमाणं वा मुच्छा देहादिए जस्स पुणो विज्जदि जदि परमाणुमात्रं वा मूर्च्छा देहादिकेषु विषयेषु यस्य पुरुषस्य पुनर्विद्यते यदि चेत् । सो सिद्धिं ण लहदि स सिद्धिं मुक्तिं न लभते । कथंभूतः । सव्वागमधरोत्र सर्वागमधरोऽपीति । अयमत्रार्थः - सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां यौगपद्ये सति यस्य देहादिविषये स्तोकममत्वं विद्यते तस्य पूर्वसूत्रोक्तं निर्विकल्पसमाधिलक्षणं निश्चयरत्नत्रयात्मकं स्वसंवेदनज्ञानं नास्तीति ॥ ३९ ॥ अथ द्रव्यभावसंयमस्वरूपं कथयति 1 Jain Education International चागो य अणारंभी विसयविरागो खओ कसायाणं । सो संजमो त्ति भणिदो पव्वज्जाए विसेसेण ॥ * २१ ॥ 1 चागो य निजशुद्धात्मपरिग्रहं कृत्वा बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहनिवृत्तिस्त्यागः अणारंभो निःक्रियनिज[विद्यते ] मौजूद है, तो [सः ] वह पुरुष उतने ही मोह कलंकसे [सर्वागमधरोऽपि ] द्वादशांगका पाठी होता हुआ भी [ सिद्धिं] मोक्षको [न] नहीं [ लभते ] पाता । भावार्थ - जैसे हाथमें निर्मल स्फटिकका मणिका अंतर बाहिरसे अच्छा दीखता है, उसी तरह जिन पुरुषोंने समस्त आगमका रहस्य जान लिया है, और उसी आगमके अनुसार त्रिकाल सम्बंधी सकल पर्याय सहित संपूर्ण द्रव्योंके जाननेवाला आत्माको वे जानते हैं, श्रद्धान करते हैं, और आचरण करते हैं । इसी तरह जिस पुरुष के आगमज्ञान, तत्वार्थश्रद्धान, संयम, इस रत्नत्रयकी एकता भी हुई है, परंतु वही पुरुष जो किसी कालमें शरीरादि परद्रव्यों में रागभाव मलसे मलीन हुआ ज्ञानस्वरूप आत्माको वीतराग उपयोग भावरूप नहीं अनुभव करता है, तो वही पुरुष उतने ही सूक्ष्म मोहकलंकसे कीलित कर्मोंसे नहीं छूटता - मुक्त नहीं होता । इससे यह बात सिद्ध हुई, कि वीतराग निर्विकल्प समाधिसे आत्मज्ञानसे शून्य पुरुषके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभावोंकी एकता भी कार्यकारी नहीं है, जो आत्मज्ञान सहित हो, तभी मोक्षका साधक हो सके, इस कारण आत्मज्ञान मोक्षका मुख्य साधन है ॥ ३९ ॥ आगे जिसके आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान, संयमभाव की एकता है, और आत्मज्ञानकी एकता है, उस पुरुषका स्वरूप कहते हैं - [ स श्रमणः ] वह महामुनि [ संयतः ] संयमी [ भणितः ] भगवंतदेवने कहा है, जो कि For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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