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________________ २६६ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० ३, गा० १८प्रसिद्धस्तथा तद्विनाभाविना प्रयताचारेण प्रसिद्धयदशुद्धोपयोगासद्भावपरस्य परमाणव्यपरोपसद्भावेऽपि बन्धामसिद्धया सुनिश्चितहिंसाऽभावप्रसिद्धेश्वान्तरङ्ग एवं छेदो बलीयान् न पुनर्बहिरङ्गः । एवमप्यन्तरगच्छेदायतनमात्रखादहिरङ्गच्छेदोऽभ्युगम्येतैव ।। १७ ।। __ अथ सर्वथान्तरङ्गच्छेदः प्रतिषेध्य इत्युपदिशति अयदाचारो समणो छस्सु वि कायेसु वधकरो त्ति मदो। - चरदि जदं जदि णिचं कमलं व जले णिरुवलेवो ॥ १८ ॥ हिंसामेत्तेण द्रव्यहिंसामात्रेण । कथंभूतस्य पुरुषस्य । समिदस्स समितस्य शुद्धात्मस्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितस्तस्य समितस्य । व्यवहारेणेर्यादिपञ्चसमितियुक्तस्य च । अयमत्रार्थ:-स्वस्वभावनानिरूपनिश्चयप्राणस्य विनाशकारणभूता रागादिपरिणतिनिश्चयहिंसा हिंसा भण्यते रागाद्युत्पत्तेबहिरङ्गनिमित्तभूतः परजीवघातो व्यवहारहिंसेति द्विधा हिंसा ज्ञातव्या । किंतु विशेषः-बहिरङ्गहिंसा भवतु वा मा भवतु स्वस्वभावनारूपनिश्चयप्राणघाते सति निश्चयहिंसा नियमेन भवतीति । ततः कारणात्सव मुख्येति ॥ १७ ॥ अथ तमेवार्थ दृष्टान्तदार्टान्ताभ्यां दृढयति उच्चालियम्हि पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए। आवाधेज्ज कुलिंग मरिज्ज तं जोगमासेज्ज ।। *१॥ ण हि तस्स तण्णिमित्तो बंधो सुहुमो य देसिदो समये । मुच्छा परिग्गहो चिय अज्झप्पपमाणदो दिह्रो ॥ १२ ॥ जुम्मं । उच्चालियम्हि पाए उत्क्षिते चालिते सति पादे । कस्य । इरियासमिदस्स ईर्यासमितितपोधनस्य । क । णिग्गमत्थाए विवक्षितस्थानान्निर्गमस्थाने आबाधेज आबाध्येत पीडयेत । स कः । कुलिंग सूक्ष्मबलवती है । क्योंकि बाह्यमें दूसरे जीवका घात हो, या न हो, किन्तु यदि मुनिके यत्नरहित हलन चलनादि क्रिया हो, तो उस मुनिके यत्न रहित आचारसे अवश्यमेव उपयोगकी चंचलता होती है। अतएव अशुद्धोपयोगके होनेसे आत्माके चैतन्य प्राणका घात होता है, इसी लिये हिंसा अवश्यमेव है, और यदि मुनि यत्नसे पाँच समितियोंमें प्रवृत्ति करे, तो वह मुनि उपयोगकी निश्चलतासे शुद्धोपयोगरूप संयमका रक्षक होता है। इसलिये बाह्यमें कदाचित् दूसरे जीवका घात भी हो, तब भी अन्तरङ्ग अहिंसक भावके बलसे बन्ध नहीं होता । इसलिये शुद्धोपयोगरूप संयमकी घातनेवाली अन्तरङ्गहिंसा ही बलवती है । अन्तरङ्गहिंसासे अवश्य ही बन्ध होता है। किन्तु बाह्यहिंसासे बन्ध होता भी है, और नहीं भी होता है। यदि यत्न करनेपर भी बाह्यहिंसा हो जाय, तो बन्ध नहीं होता, और जो यत्न न हो, तो अवश्य ही बाह्यहिंसा बन्धका कारण होती है, और बाह्यहिंसाका जो निषेध किया है, सो भी अन्तरङ्गहिंसाके निवारण करनेके लिये ही किया है । इसलिये अन्तरङ्गहिंसा त्याज्य है, और शुद्धोपयोगरूप अहिंसकभाव उपादेय है॥ १७॥ आगे सर्वथा अन्तरङ्ग शुद्धोपयोगरूप संयमका घात निषेध करने योग्य है, यह कहते हैं[अयताचारः] जिसके यत्नपूर्वक आचार क्रिया नहीं, ऐसा [श्रमणः] जो मुनि वह [षटूस्वपि] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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