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प्रवचनसारः
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यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्पसामायिकसंयमप्रतिपादकलेन यः किलाचार्यः प्रव्रज्यादायकः स गुरुः, य पुनरनन्तरं सविकल्पच्छेदोपस्थापनसंयमप्रतिपादकलेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानप्रतिपादकलेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यापक एव । ततश्छेदोपस्थापकः परोऽप्यस्ति ॥ १० ॥ अथ छिन्नसंयमप्रतिसंधानविधानमुपदिशति
पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेटम्हि ।
जायदि जदि तस्स पुणो आलोयणपुब्विया किरिया ॥ ११ ॥ गुरु त्ति होदि गुरुर्भवतीति । स कः । पञ्चज्जदायगो निर्विकल्पसमाधिरूपपरमसामायिकप्रतिपादको यौऽसौ प्रव्रज्यादायकः स एव दीक्षागुरुः छेदेसु अ वट्टगा छेदयोश्च वर्तकाः ये सेसा णिज्जावगा समणा ते शेषाः श्रमणा निर्यापका भवन्ति शिक्षागुरवश्च भवन्तीति । अयमत्रार्थ:-निर्विकल्पसमाधिरूपसामायिकस्यैकदेशेन च्युतिरेकदेशच्छेदः, सर्वथा च्युतिः सकलदेशच्छेद इति देशसकलभेदेन द्विधा छेदः । तयोश्छेदयोर्ये प्रायश्चित्तं दत्त्वा संवेगवैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । दीक्षादायकस्तु दीक्षागुरुरित्यभिप्रायः ॥ १० ॥ अथ पूर्वसूत्रोक्तच्छेदद्वयस्य प्रायश्चित्तविधानं कथयति-पयदम्हि समारद्धे छेदो समणस्स कायचेम्हि जायदि जदि प्रयतायां समारब्धायां छेदः श्रमणस्य कायचेष्टायां जायते यदि चेत् । अथ विस्तरः-छेदो जायते यदि चेत् । स्वस्थभावच्युतिलक्षणः छेदो भवति । कस्याम् । कायचेष्टायाम् । कथंभूतायाम् । प्रयतायाँ स्वस्वभावलक्षणप्रयत्नपरायां समारब्धायां अशनशयनयानस्थानादिप्रारब्धायाम् । तस्स पुणो आलोयणपुब्बिया णकी अवस्थामें [गुरुः] जो गुरू होता है, वह [प्रव्रज्यादायकः] दीक्षाको देनेवाला [ भवति] होता है, अर्थात् कहा जाता है, [छेदयोः ] एक देश सर्वदेशके भेदकर जो दो प्रकारके छेद अर्थात् संयमके भेद उनके [उपस्थापकाः] उपदेश देकर फिर स्थापन करनेवाले [शेषाः] अन्य [श्रमणाः] यत्याचारमें अति प्रवीण महामुनि हैं, वे [निर्यापकाः] निर्यापकगुरु कहे जाते हैं । भावार्थ-प्रथम तो जिस आचार्यके पाससे मुनिपदकी दीक्षा लीजावे, वह गुरू दीक्षादायक कहा जाता है, और दीक्षा लेनेके बाद अंतरंग एकदेश जो कभी संयमका भंग हुआ हो, तो जिस गुरूके उपदेशसे फिर उस संयमकी स्थापना कीजावे, वह गुरू निर्यापक कहा जाता है, अथवा यदि जिस संयमका सर्वथा ही नाश हुआ हो, तो वह संयम जिस गुरूके उपदेशसे फिर अंगीकार किया जावे, वह गुरू भी निर्यापक कहा जाता है ॥ १० ॥ आगे जो संयमरूप वृक्ष भंग हुआ हो, तो उसके जोड़नेकी विधि दिखलाते हैं-[प्रयतायां] यत्नपूर्वक [समारब्धायां] आरम्भ हुई [कायचेष्टायां] शरीरकी क्रियाके होनेपर [यदि] जो [श्रमणस्य] मुनिके [छेदः] संयमका भंग [जायते] उत्पन्न हो, तो [पुनः] फिर [तस्य] उस मुनिको [आलोचनपूर्विका क्रिया] जैसी कुछ यत्याचार ग्रंथोंमें आलोचना-क्रिया कही गई है, वैसी ही करनी चाहिये, यह उपाय है। [छेदोप
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