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________________ २४१ १०७] प्रवचनसारः एवंभूतश्च सर्वाभिलाषजिज्ञासासंदेहासंभवेऽप्यपूर्वमनाकुलखलक्षणं परमसौख्यं ध्यायति । अनाकुलखसंगतैकाग्रसंचेतनमात्रेणावतिष्ठत इति यावत् । ईदृशमवस्थानं च सहजज्ञानानन्दस्वभावस्य सिद्धखस्य सिद्धिरेव ॥ १०६ ॥ . अथायमेव शुद्धात्मोपलम्भलक्षणो मोक्षस्य मार्ग इत्यवधारयति--- एवं जिणा जिणिंदा सिद्धा मग्गं समुहिदा समणा । जादा णमोत्थु तेर्सि तस्स य णिव्वाणमग्गस्स ॥१०७ ॥ णाणलो समन्ततः सामस्त्येन स्पर्शनादिसर्वाक्षसौख्यज्ञानाढ्यः । समन्ततः सर्वात्मप्रदेशैर्वा स्पर्शनादिसर्वेन्द्रियाणां संबन्धित्वेन ये ज्ञानसौख्ये द्वे ताभ्यामाढ्यः परिपूर्ण इत्यर्थः । तद्यथा-अयं भगवानेकदेशोद्भवसांसारिकज्ञानसुखकारणभूतानि सर्वात्मप्रदेशोद्भवस्वाभाविकातीन्द्रियज्ञानसुखविनाशकानि च यानीन्द्रियाणि निश्चयरत्नत्रयात्मककारणसमयसारबलेनातिकामति विनाशयति यदा तस्मिन्नेव क्षणे समस्तबाधारहितः सन्नतीन्द्रियमनन्तमात्मोत्थसुखं ध्यायत्यनुभवति परिणमति । ततो ज्ञायते केवलिनामन्यचिन्तानिरोधलक्षणं ध्यानं नास्ति किंत्विदमेव परमसुखानुभवनं वा ध्यानकार्यभूतां कर्मनिर्जरां दृष्ट्वा ध्यानशब्देनोपचर्यते । यत्पुनः सयोगिकेवलिनस्तृतीयशुक्लध्यानमयोगिकेवलिनश्चतुर्थशुक्लध्यानं भवतीत्युक्तं तदुपचारेण ज्ञातव्यमिति सूत्राभिप्रायः ॥ १०६ ॥ एवं केवली किं ध्यायतीति प्रश्नमुख्यत्वेन प्रथमगाथा । परमसुखं ध्यायत्यनुभवतीति परिहारमुख्यत्वेन द्वितीया चेति ध्यानविषयपूर्वपक्षपरिहारद्वारेण तृतीयस्थले गाथाद्वयं गतम् । अथायमेव निजशुद्धात्मोपलब्धिलक्षणमोक्षमार्गो नान्य इति विशेषेण समर्थयति-जादा उत्पन्नाः । कथंभूताः । सिद्धा सिद्धाः सिद्धपरमेष्ठिनो मुक्तात्मान इत्यर्थः । के कर्तारः । जिणा जिनाः अनगार और अनंतज्ञान इन दोनोंसे पूर्ण ऐसे केवली भगवान् [परं] उत्कृष्ट [सौख्यं] आत्मीकसुखका [ध्यायति चितवन अर्थात् एकाग्रतासे अनुभव करते हैं । भावार्थ-यह आत्मा जिस समय अनंतज्ञान अनंतसुखके आवरण करनेवाले एकदेशी ज्ञान सुखके हेतु इन्द्रियोंके नाशसे अतींद्रिय दशाको प्राप्त होता है, तब बाधाओं (रुकावहहों से रहित हुआ अनंतज्ञान अनंतसुख सहित होता है, ऐसे केवली भगवानमें यद्यपि कुछ प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं रही, और कुछ जाननेकी भी अभिलाषा नहीं रही, तथा कुछ संशय भी नहीं रहा, तो भी भगवान् एकाग्रतासे अपने अनंत अनाकुल परमसुखको अनुभवते हैं। इस कारण उपचारसे 'ध्यान करता है ऐसा कहते हैं। ध्यान करनेका फल यह है, कि पूर्वमें बँधे हुए कर्मोंकी निर्जरा होती है, और आगामी बंधका परमसंवर होता है, इस कारण केवलीभगवानके अपने अनंतसुखका अनुभव करनेसे पूर्व कर्मोकी निर्जरा होती है, आगेका संवर है, इसलिये उपचारमात्र केवलीके ध्यान हैं । इस प्रकार स्वाभाविक ज्ञानानन्दस्वरूप सिद्धत्वकी सिद्धि भगवानके ही है ॥ १०६ ॥ आगे शुद्ध आत्माकी प्राप्ति ही मोक्षमार्ग है, निश्चय करते हैं-[एवं] इस पूर्वोक्त प्रकारसे [मार्ग] सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रमयी शुद्धात्मप्रवृत्तिरूप मोक्षमार्गके प्रति [समुत्थिताः] उद्यमी होके प्राप्त हुए जो [जिनाः] उसी भवसे मोक्ष जानेवाले सामान्य चरमशरीरी जीव [जिनेन्द्राः] अरहंत पदके प्रव. " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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