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________________ २३० कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ९६बन्धो द्रष्टव्यः शुद्धद्रव्यविषयखानिश्चयस्य ॥ ९६ ॥ __ अथ निश्चयव्यवहाराविरोधं दर्शयति एसो बंधसमासो जीवाणं णिच्छयेण णिहिटो। अरहंतेहिं जदीणं ववहारो अण्णहा भणिदो ॥९७ ॥ एष बन्धसमासो जीवानां निश्चयेन निर्दिष्टः। अर्हद्भिर्यतीनां व्यवहारोऽन्थया भणितः ॥ ९७ ॥ __रागपरिणाम एवात्मनः कर्म, स एव पुण्यपापद्वैतम् । रागादिपरिणामस्यैवात्मा कर्ता तस्यैवोपादाता हाता चेत्येष शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको निश्चयनयः। यस्तु पुद्गलपरिणाम आत्मनः नयस्येति ॥ ९६ ॥ एसो बंधसमासो एष बन्धसमासः एष बहुधा पूर्वोक्तप्रकारो रागादिपरिणतिरूपो बन्धसंक्षेपः केषां संबन्धी । जीवाणं जीवानाम् । णिच्छयेण णिहिट्ठो निश्चयेन निर्दिष्टः कथितः । कैः कर्तृभूतैः । अरहंतेहिं अर्हद्भिः निर्दोषिपरमात्मभिः । केषाम् । जदीणं जितेन्द्रियत्वेन शुद्धात्मस्वरूपे यत्नपराणां गणधरदेवादियतीनाम् । ववहारो द्रव्यकर्मरूपव्यवहारबन्धः अण्णहा भणिदो निश्चयनयापेक्षयान्यथा व्यवहारनयेनेति भणितः । किंच रागादीवात्मा करोति तानेव भुङ्क्ते चेति निश्चयनयलक्षणमिदम् । अयं तु निश्चयनयो द्रव्यकर्मबन्धप्रतिपादकासद्भूतव्यवहारनयापेक्षया शुद्धद्रव्यनिरूपणात्मको विवक्षितनिश्चयनयस्तथैवाशुद्धनिश्चयश्च भण्यते । द्रव्यकर्माण्यात्मा करोति भुङ्क्ते चेत्यशुद्रव्यनिरूपणात्मकासद्भूतव्यवहारनयो है। निश्चयनय तो केवल द्रव्यके परिणामको दिखलाता है, और व्यवहारनय अन्य द्रव्यके परिणामको दिखलाता है ॥ ९६ ॥ आगे निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंका आपसमें अविरोध दिखलाते हैं[अर्हद्भिः] अहंतदेवने [जीवानां] संसारी जीवोंका [एषः] पूर्वोक्त प्रकार यह रागपरिणाम ही [निश्चयेन] निश्चयसे बंध है, ऐसा [बन्धसमासः] बंधका संक्षेप कथन (सारांश) [यतीनां] मुनीश्वरोंको [निर्दिष्टः] दिखलाया है। [अन्यथा] इस निश्चयबंधसे जुदा जो जीवोंके एक क्षेत्रावगाहरूप द्रव्यकर्मबंध है, वह [व्यवहारः] उपचारसे बंध [भणितः] भगवंतने कहा है। भावार्थ-जो पुण्य पाप स्वरूप आत्माका राग परिणाम है, वह उसका कर्म है, उसीका आत्मा कर्ता है, उस राग परिणामको अपने ही परिणमनसे ग्रहण करता है, और अपने ही से छोड़ता है। इस कारण यह शुद्ध द्रव्यका कहनेवाला निश्चयनय जानना । तथा जो द्रव्यकर्मरूप पुद्गलपरिणाम आत्माका कर्म है, उसका वह कर्ता है, और ग्रहण करनेवाला तथा छोड़नेवाला है, सो यह अशुद्ध द्रव्यका कहनेवाला व्यवहारनय है। इस प्रकार निश्चय व्यवहार नयसे शुद्धाशुद्धरूप बंधका स्वरूप दो प्रकार दिखलाया है। परंतु इतना विशेष है, कि निश्चयनय ग्रहण करने योग्य है, क्योंकि वह केवल द्रव्यके परिणामको दिखलाता है, और साध्यरूप शुद्ध द्रव्यके शुद्ध स्वरूपको दिखलाता है। तथा व्यवहारनय परद्रव्यके परिणामको आत्मपरिणाम दिखलानेसे द्रव्यको अशुद्ध दिखलाता है, इस कारण ग्रहण योग्य नहीं है। यहाँपर कोई प्रश्न करे, 'कि तुमने रागपरिणामको निश्चयबंध कहा, और इसीको शुद्ध द्रव्यका कथन तथा ग्रहण योग्य कहा है, सो क्या कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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