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________________ [ अ० २, गा० ६६ कुन्दकुन्दविरचितः विशिष्टोदयदशाविश्रान्तदर्शनज्ञानचारित्रमोहनीयपुद्गलानुवृत्तिपरत्वेन परिगृहीताशोभनोपरागत्वात्परमभट्टारकमहादेवाधिदेवपरमेश्वरार्हत्सिद्धसाधुभ्योऽन्यत्रान्मार्गश्रद्धाने विषयकषायदुःश्रवणदुराशयदुष्ट सेवनोग्रताचरणे च प्रवृत्तोऽशुभोपयोगः ॥ ६६ ॥ अथ परद्रव्यसंयोगकारणविनाशमभ्यस्यति— २०० असुहोवओगरहिदो सुहोवजुत्तो ण अण्णदवियम्हि | हो मज्झत्थोऽहं णाणप्पगमप्पगं झाए ॥ ६७ ॥ अशुभपयोगरहितः शुभोपयुक्तो न अन्यद्रव्ये । भवन्मध्यस्थोऽहं ज्ञानात्मकमात्मकं ध्यायामि ॥ ६७ ॥ यो हि नामायं परद्रव्यसंयोगकारणत्वेनोपन्यस्तोऽशुद्ध उपयोगः स खलु मन्दतीत्रोदयदशाविश्रान्तपरद्रव्यानुवृत्तितन्त्रवादेव प्रवर्तते न पुनरन्यस्मात् । ततोऽहमेष सर्वस्मिन्नेव परचैतन्यपरिणतेर्विनाशिका दुष्टगोष्ठी तत्प्रतिपक्षभूतकुशीलपुरुषगोष्ठी वा । इत्थंभूतं दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठीभिर्युतो दुःश्रुतिदुश्चित्तदुष्टगोष्ठीयुक्तः परमोपशमभावपरिणतपरमचैतन्यस्वभावात्प्रतिकूलः उग्रः वीतरागसर्वज्ञप्रणीतनिश्चयव्यवहारमोक्षमार्गाद्विलक्षण उन्मार्गपरः । इत्थंभूतविशेषण चतुष्टय सहित उपयोगः परिणामः तत्परिणतपुरुषो वेभपयोगो भण्यत इत्यर्थः || ६६ || अथ शुभाशुभरहितशुद्धोपयोगं प्ररूपयति- असुहोव - ओगरहिदो अशुभोपयोगरहितो भवामि । स कः अहं अहं कर्ता । पुनरपि कथंभूतः । सुहोवजुत्तो ण शुभोपयोगयुक्तः परिणतो न भवामि । क विषयेऽसौ शुभोपयोगः अण्णदवियम्हि निजपरमात्मद्रव्यादन्य-द्रव्ये । तर्हि कथंभूतो भवामि । होज्जं मज्झत्थो जीवितमरणलाभालाभसुखदुःखशत्रुमित्रनिन्दाप्रशंसादिजो मिथ्यामार्ग उसमें सावधान हो, [सः ] वह परिणाम [ अशुभः ] अशुभोपयोग कहा है । भावार्थ- जब इस जीवके दर्शनमोह तथा चारित्रमोहका तीव्र उदय होता है, तब वह अशुभरागके ग्रहण करनेसे पंचपरमेष्ठीमें रुचि नहीं करता, मिथ्यामार्गका श्रद्धानी होकर विषयकषायों में प्रवर्तता है, मिथ्या सिद्धांतशास्त्रों को सुनता है, खोटे आचरण करता है, इत्यादि पापक्रियाओंमें लीन होता है, इसीसे वह जीव अशुभोपयोगी कहा जाता है ॥ ६६ ॥ आगे परद्रव्य संयोगके कारण जो शुभ अशुभभाव हैं, उनके नाश होनेका कारण दिखलाते हैं - [ अशुभोपयोगरहितः ] मिथ्यात्व, विषय, कषायादि रहित हुआ [शुभोपयुक्तः न ] शुभोपयोगरूप भावोंमें भी उपयोग नहीं करनेवाला [ अन्यद्रव्ये मध्यस्थो भवन् ] और शुभ अशुभ द्रव्य भावरूप पर भावोंमें मध्यवर्ती हुआ अर्थात् दोनोंको समान माननेवाला ऐसा जो [अहं ] स्वपरविवेकी मैं हूँ, सो [ ज्ञानात्मकं ] ज्ञानस्वरूप [ आत्मानं ] शुद्ध जीवद्रव्यका [ध्यायामि ] परमसमरसीभावमें मग्न हुआ अनुभव करता हूँ । भावार्थ - यह जो परसंयोगका कारण शुभ अशुभरूप अशुद्ध उपयोग होता है, वह मोहनीय कर्मकी मंद तीव्र दशाके आधीन होकर प्रवर्तता है, शुद्ध आत्मीक भावसे विपरीत (उलटा ) है, परद्रव्यरूप है, इस कारण इन दोनों शुभ अशुभ भावोंमें मेरी समान बुद्धि है, इसी लिये मैं मध्यस्थ हूँ, परद्रव्यको अंगीकार नहीं करता हूँ, इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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