SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 341
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७६ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० ४५सूत्रयिष्यते हि स्वयमाकाशस्य प्रदेशलक्षणमेकाणुव्याप्यसमिति । इह तु यथाकाशस्य प्रदेशास्तथा शेषद्रव्याणामिति प्रदेशलक्षणमकारकत्वमासूत्र्यते । ततो यथैकाणुन्याप्येनांशेन गण्यमानस्याकाशस्यानन्तांशत्वादनन्तप्रदेशवं तथैकाणुव्याप्येनांशेन गण्यमानानां धर्माधर्मैकजीवानामसंख्येयांशत्वात् प्रत्येकमसंख्येयप्रदेशत्वम् । यथा चावस्थितप्रमाणयोधर्माधर्मयोस्तथा संवर्तविस्ताराभ्यामनवस्थितप्रमाणस्यापि शुष्काईत्वाभ्यां चर्मण इव जीवस्य खांशाल्पबहुत्वाभावादसंख्येयप्रदेशत्वमेव । अमूर्तसंवर्तविस्तारसिद्धिश्च स्थूलकशशिशुकुमारशरीरव्यापित्वादस्ति स्वसंवेदनसाध्यैव । पुद्गलस्य तु द्रव्येणैकप्रदेशमात्रत्वादप्रदेशत्वे यथोदिते सत्यपि द्विप्रदेशाधुद्भवहेतुभूततथाविधस्निग्धरूक्षगुणपरिणामशक्तिस्वभावात्पदेशोद्भवत्वमस्ति । ततः पर्यायेणानेकप्रदेशत्वस्यापि संभवात् द्वयादिसंख्येयासंख्येयानन्तप्रदेशत्वमपि न्याय्यं पुद्गलस्य ॥४५॥ अथ कालाणोरपदेशत्वमेवेति नियमयति समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स व्वजादस्स । वदिवढ्दो सो वदि पदेसमागासव्वस्स ॥ ४६॥ व्याप्तक्षेत्रप्रमाणाकाशप्रदेशाः तधप्पदेसा हवंति सेसाणं तेनैवाकाशप्रदेशप्रमाणेन प्रदेशा भवन्ति । केषाम् । शुद्धबुबैकस्वभावं यत्परमात्मद्रव्यं तत्प्रभृतिशेषद्रव्याणाम् । अपदेसो परमाणू अप्रदेशो द्वितीयादिप्रदेशरहितो योऽसौ पुद्गलपरमाणुः तेण पदेसुब्भवो भणिदो तेन परमाणुना प्रदेशस्योद्भव उत्पत्तिर्भणिता। परमाणुव्याप्तक्षेत्रं प्रदेशो भवति । तदने विस्तरेण कथयति इह तु सूचितमेव ॥ ४५ ॥ एवं पञ्चमस्थले स्वतन्त्रगाथाद्वयं गतम् । अथ कालद्रव्यस्य द्वितीयादिप्रदेशरहितत्वेनाप्रदेशत्वं व्यवस्थापयति- समओ समयप्रदेश है । इस तरह आकाशके अनंत प्रदेश होते हैं । उसी प्रकार प्रदेशसे धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, और एक जीवद्रव्यका माप किया जावे, तो असंख्यात असंख्यात प्रदेशी हैं, उनमें भी धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य सदा ही स्थिररूप हैं, तथा जीवद्रव्य संसारमें संकोच विस्तारकर अथिर है, जैसे सूखा और गीला चर्म अनवस्थित है, तो भी अपने प्रदेशोंसे कम ज्यादा नहीं होता । इस प्रकार असंख्यातप्रदेशी है । यहाँपर कोई प्रश्न करे, कि आत्मा अमूर्त है, उसके संकोच विस्तार किस तरह हो सकता है ? तो उसका उत्तर यह है, कि जैसे कोई पुरुष मोटा है, वह क्षीण हो जाता है, और कोई क्षीणसे मोटा हो जाता है, इस दशामें उस पुरुषके शरीरके मोटे वा क्षीण होनेके साथमें ही आत्माके प्रदेश भी संकोच और विस्तारको प्राप्त होते हैं, और जैसे बालक जब जवान होता है, तब आत्माके प्रदेश भी विस्ताररूप हो जाते हैं, इस कारण आत्माके संकोच विस्तार अच्छी तरह अनुभवमें आते हैं, संदेह नहीं रहता । पुद्गलद्रव्य परमाणुकी अपेक्षा यद्यपि एक प्रदेशी है, तो भी द्वयणुकादि होनेकी इसमें मिलन-शक्ति है, इसलिये द्वयणुक वगैरह स्कंध (समूहरूप) पर्यायोंकी अपेक्षा संख्यात, असंख्यात, अनंतप्रदेशी पुद्गलद्रव्य है, ॥ ४५ ॥ आगे कालाणुको अप्रदेशी दिखलाते हैं [तु] और [समयः] कालद्रव्य [अप्रदेशः] प्रदेशसे रहित है, अर्थात् प्रदेशमात्र है, [सः] वह कालाणु [आकाशद्रव्यस्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy