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________________ १५२ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० २, गा० २७जायते नैव न नश्यति क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कश्चित् ।। यो हि भवः स विलयः संभवविलयाविति तौ नाना ॥२७॥ .. - इह तावन्न कश्चिज्जायते न म्रियते च । अथ च मनुष्यदेवतिर्यङ्नारकात्मको.जीवलोकः प्रतिक्षणपरिणामिलादुत्संगितक्षणभङ्गोत्पादः। न च विमतिषिद्धमेतत् , संभवविलययोरेकखनानाखाभ्याम् । यदा खलु भङ्गोत्पादयोरेकलं तदा पूर्वपक्षः, यदा तु नानावं तदोत्तरः। तथाहियथा य एव घटस्तदेव कुण्डमित्युक्ते घटकुण्डस्वरूपयोरेकखासंभवात्तदुभयाधारभूता मृत्तिका संभवति, तथा य एव संभवः स एव विलय इत्युक्ते संभवविलयस्वरूपयोरेकलासंभवात्तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यं संभवति । ततो देवांदिपर्याये संभवति मनुष्यादिपर्याये विलीयमाने च य एव संभवः स एव विलय इति कृखा तदुभयाधारभूतं ध्रौव्यवज्जीवद्रव्यं संभाव्यत एव । ततः सर्वदा खणभंगसमुब्भवे जणे कोई क्षणभङ्गसमुद्भवे जने कोऽपि । क्षणं क्षणं प्रति भङ्गसमुद्भवो यत्र संभवति क्षणभङ्गसमुद्भवस्तस्मिन्क्षणभङ्गसमुद्भवे विनश्वरे पर्यायार्थिकनयेन जने लोके जगति कश्चिदपि, तस्मान्नैव जायते न चोत्पद्यत इति हेतुं वदति जो हि भवो सो विलो द्रव्यार्थिकनयेन यो हि भवः स एव विलयो यतः कारणात् । तथाहि मुक्तात्मनां य एव सकलविमलकेवलज्ञानादिरूपेण मोक्षपर्यायेण भव उत्पादः स एव निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चयमोक्षमार्गपर्यायेण विलयो विनाशस्तौ च मोक्षपर्यायमोक्षमार्गपर्यायौ कार्यकारणरूपेण भिन्नौ, तदुभयाधारभूतं यत्परमात्मद्रव्यं तदेव मृत्पिण्डघटाधारभूतमृत्तिकाद्रव्यवत् मनुष्यतो भी पर्यायोंसे अनवस्थित (नानारूप) है, ऐसा प्रगट करते हैं-[क्षणभङ्गसमुद्भवे] समय समय विनाश होनेवाले [जने] इस जीवलोकमें [कश्चित] कोई भी जीव | नैव जायते न तो उत्पन्न होता है, [न नश्यति] और न नष्ट होता है । [यः] जो द्रव्य [हि] निश्चयसे [भवः] उत्पत्तिरूप है, [स] वही वस्तु [विलयः] नाशरूप है । [इति] इसलिये [तौ] वे [संभवविलयो] उत्पाद और नाश ये दोनों पर्याय [नाना] भेद लिये हुए हैं। भावार्थ-इस विनाशीक संसारमें जो द्रव्यदृष्टि से देखा जाय, तो न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, और न विनाशको प्राप्त होती है, इस कारण द्रव्यार्थिकनयसे उत्पाद और व्यय इन दोनों अवस्थाओंमें द्रव्य एक नित्य ही है, पर्यायार्थिकनयको अपेक्षा उत्पाद, व्यय जुदा जुदा हैं । इस तरह उत्पाद और व्ययमें एकता और अनेकता ये दो भेद होते हैं। जो द्रव्यत्वकर देखा जाय, तो एकता है, और पर्यायार्थिकसे अनेकता देखने में आती है। यही दृष्टांतसे दिखाते हैं—जैसे जो घड़ा है, वही कूड़ा है, ऐसा कहनेसे घड़े और कूड़ेमें एकता नहीं होसकती, इस कारण उन दो स्वरूपोंका आधार मिट्टीकी जो अपेक्षा ली जावे, तो एकता हो सकती है, उसी प्रकार उत्पाद, व्ययमें भी द्रव्यपनेसे दोनोंका आधार ध्रौव्य द्रव्य आता है। इसलिये जीवके देवादि पर्यायके उत्पाद होनेपर और मनुष्यादि पर्यायके विनाश होनेपर जो उत्पन्न होता है, वही विनाश पाता है, इन दोनो अवस्थाओंका आधार ध्रौव्य जीवद्रव्य ही सिद्ध होता है । इस कारण जीव द्रव्य हमेशा द्रव्यपनेसे टंकोत्कीर्ण रहता है । इस तरह सब अवस्थाओंमें एकता सिद्ध हुई । अब भेद दिखाते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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