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________________ १२८ कुन्दकुन्दविरचितः [ अ० २, गा० १० स तूत्पाद्यावस्थाय च नश्यतो जन्मक्षणः स्थितिक्षणश्च न भवति । इत्युत्पादादीनां वितर्क्यमाणः क्षणभेदो हृदयभूमिमवतरति, अवतरत्येवं यदि द्रव्यमात्मनैवोत्पद्यते आत्मनैवावतिष्ठते आत्मनैव नश्यतीत्यभ्युपगम्यते । तत्तु नाभ्युपगतम् । पर्यायाणामेवोत्पादादयः कुतः क्षणभेदः । तथाहियथा कुलालदण्डचक्रचीवरारोप्यमाणसंस्कारसंनिधौ य एव वर्धमानस्य जन्मक्षणः स एव मृत्पिण्डस्य नाशक्षणः स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य मृत्तिकात्वस्य स्थितिक्षणः । तथा अन्तरङ्गबहिरङ्गसाधनारोप्यमाणसंस्कार संनिधौ य एवोत्तरपर्यायस्य जन्मक्षणः स एव प्राक्तनपर्यायस्य नाशक्षणः स एव च कोटिद्वयाधिरूढस्य द्रव्यत्वस्य स्थितिक्षणः । यथा च वर्धमानमृत्पिण्डमृत्तिकात्वेषु प्रत्येकवर्तीन्युत्पादव्ययधौव्याणि त्रिस्वभावस्पर्शिन्यां मृत्तिकायां सामस्त्येनैकसमय एवावलोक्यन्ते, तथा उत्तरप्राक्तनपर्यायद्रव्यत्वेषु प्रत्येकवर्तीन्यप्युत्पादव्ययधौव्याणि त्रिस्वभावस्पर्शिन द्रव्ये सामस्त्येनै समय एवावलोक्यन्ते । यथैव च वर्धमानपिण्डमृत्तिकात्खवर्तीन्युत्पादव्ययधौव्याणि मृत्तिकैव न वस्त्वन्तरं तथैवोत्तरप्राक्तनपर्यायद्रव्यत्ववतन्यप्युत्पादव्ययत्रौव्याणि द्रव्यमेव न खल्वर्थान्तरम् ॥ १० ॥ 1 निर्विकारनिजात्मानुभूतिलक्षणवीतरागचारित्रपर्यायेणोत्पादः तथैव रागादिपरद्रव्यैकत्वपरिणतिरूपचारित्रपर्यायेण नाशस्तदुभयाधारात्मद्रव्यत्वावस्थारूपपर्यायेण स्थितिरित्युक्तलक्षणसंज्ञित्वोत्पादव्ययधौव्यैः सह । तर्हि किं बौद्धमतवद्भिन्नभिन्नसमये त्रयं भविष्यति । नैवम् । एक्कम्मि चेव समये अङ्गुलिद्रव्यस्य वक्रपर्यायवत्संसारिजीवस्य मरणकाले ऋजुगतिवत् क्षीणकषायचरमसमये केवलज्ञानोत्पत्तिवदयोगिचरमसमये मोक्षवच्चेत्येकस्मिन्समय एव । तम्हा दव्वं खु तत्तिदयं यस्मात्पूर्वोक्तप्रकारेणैकसमये भङ्गत्रयेण परिणमति तस्मात्संज्ञालक्षणप्रयोजनादिभेदेऽपि प्रदेशानामभेदात्त्रयमपि खु स्फुटं द्रव्यं भवति । यथेदं चारित्राचारित्रपर्यायही नष्ट होता, तो अवश्य ही तीन समय होते, परंतु ऐसा नहीं है" । पर्यायसे उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होते हैं, इस कारण एक ही समय में सधते हैं । जैसे दंड, चक्र, सूत, कुंभकारादिके निमित्तसे घट उत्पन्न होनेका जो समय है, वही मृत्पिण्डके नाशका समय है, और इन दोनों अवस्थाओंमें मृत्तिका अपने स्वभावको नहीं छोड़ती है, इसलिये उसी समय ध्रुवपना भी है । इसी प्रकार अंतरंग - बहिरंग कारणोंके होनेपर आगामी पर्यायके उत्पन्न होनेका जो समय है, वही पूर्व पर्यायके नाशका समय है, और इन दोनों अवस्थाओं में द्रव्य अपने स्वभावको छोड़ता नहीं है, इसलिये उसी समय ध्रुव है । जैसे मृत्तिका द्रव्यमें घट, मृत्पिंड और मृत्तिकाभाव इन पर्यायोंसे एक ही समय में उत्पाद -व्यय-धन्य हैं, उसी प्रकार पर्यायोंके द्वारा द्रव्यमें भी जानना चाहिये । पूर्व पर्यायका नाश, उत्तर पर्यायका उत्पाद, और द्रव्यतासे ध्रुवता, ये तीन भाव एक ही समयमें सघते हैं। हाँ, यदि द्रव्य ही उपजता, विनशता, तो एक समय अवश्य ही नहीं सधता, परंतु पर्यायकी अपेक्षा अच्छी तरह सधते हैं, कोई शंका नहीं रहती । और जैसे घट, मृत्पिंड, मृत्तिकाभावरूप उत्पाद-व्यय- प्रौव्य मृत्तिकासे जुदे पदार्थ नहीं हैं, मृत्तिकारूप ही हैं, उसी प्रकार उत्पाद, व्यय, धौव्य ये द्रव्यसे जुदा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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