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२] प्रवचनसारः
१११ ये पर्यायेषु निरता जीवाः परसमयिका इति निर्दिष्टाः।
आत्मस्वभावे स्थितास्ते स्वकसमया मन्तव्याः ॥२॥ ये खलु जीवपुद्गलात्मकमसमानजातीयद्रव्यपर्याय सकलाविद्यानामेकमूलमुपगता यथोदितात्मस्वभावसंभावनलीवास्तस्मिन्नेवाशक्तिमुपवजन्ति, ते खलूच्छलितनिरर्गलैकान्तदृष्टयो मनुष्य एवाहमेष ममैवेतन्मनुष्यशरीरमित्यहङ्कारममकाराभ्यां विमलभ्यमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रादात्मव्यवहारात् प्रच्युत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमाश्रित्य रज्यन्तो द्विषन्तश्च परद्रव्येण कर्मणा संगततात्परसमया जायन्ते । ये तु पुनरसंकीर्णद्रव्यगुणपर्यायसुस्थितं भगवन्तमात्मनः स्वभावं सकलविद्यानामेकमूलमुपगम्य यथोदितात्मस्वभावसंभावनसमर्थतया पर्यायमात्राशक्तिमत्यस्यात्मनः स्वभाव एव स्थितिमासूत्रयन्ति, ते खलु सहजविजृम्भितानेकान्तदृष्टिपक्षपितसमस्तैकान्तदृष्टिपरिग्रहग्रहा मनुष्यादिगतिषु तद्विग्रहेषु चाविहिताहङ्कारममकारा अनेकापवरकसंचारितरत्नप्रदीपमिवैकरूपमेवात्मानमुपलभमाना अविचलितचेतनाविलासमात्रमात्मव्यवहारमुररीकृत्य क्रोडीकृतसमस्तक्रियाकुटुम्बकं मनुष्यव्यवहारमनाश्रयन्तो विश्रातथाहि-मनुष्यादिपर्यायरूपोऽहमित्यहङ्कारो भण्यते, मनुष्यादिशरीरं तच्छरीराधारोत्पन्नपञ्चेन्द्रियविषयसुखस्वरूपं च ममेति ममकारो भण्यते, ताभ्यां परिणताः ममकाराहंकाररहितपरमचैतन्यचमत्कारपरिणतेश्च्युता ये ते कर्मोदयजनितपरपर्यायनिरतत्वात्परसमया मिथ्यादृष्टयो भण्यन्ते । आदसहावम्मि ठिदा ये पुनरात्मस्वरूपे स्थितास्ते सगसमया मुणेदव्या स्वसमया मन्तव्या ज्ञातव्या इति । तद्यथा-अनेकापवरकऐसा [निर्दिष्टाः ] भगवंतदेवने दिखाया हैं । और जो सम्यग्दृष्टि जीव [ आत्मस्वभावे ] अपने ज्ञानदर्शन स्वभावमें [स्थिताः ] मौजूद हैं, [ते] वे [स्वकसमयाः] स्वसमयमें रत [ज्ञातव्याः] जानने योग्य हैं । भावार्थ-जो जीव सब अविद्याओंका एक मूलकारण जीव पुद्गल स्वरूप असमान जातिवाले द्रव्यपर्यायको प्राप्त हुए हैं, और आत्म-स्वभावकी भावनामें नपुंसकके समान अशक्ति (निर्बलपने ) को धारण करते हैं, वे निश्चय करके निरर्गल एकान्तदृष्टि ही हैं । 'मैं मनुष्य हूँ, यह मेरा शरीर है' इस प्रकार नाना अहंकार ममकारभावोंसे विपरीत ज्ञानी हुए अविचलित चेतना-विलासरूप आत्म-व्यवहारसे च्युत होकर समस्त निंद्य क्रिया-समूहके अंगीकार करनेसे पुत्र स्त्री मित्रादि मनुष्यव्यवहारको आश्रय करके रागी द्वेषी होते हैं, और परद्रव्यकर्मोंसे मिलते हैं, इस कारण परसमयरत होते हैं । और जो जीव अपने द्रव्यगुणपर्यायोंकी अभिन्नतासे स्थिर हैं, समस्त विद्याओंके मूलभूत भगवंत आत्माके स्वभावको प्राप्त हुए हैं, आत्मस्वभावकी भावनासे पर्यायरत नहीं हैं, और आत्म-स्वभावमें ही स्थिरता बढ़ाते हैं, वे जीव स्वाभाविक अनेकान्तदृष्टिसे एकांत दृष्टिरूप परिग्रहको दूर करनेवाले हैं। मनुष्यादि गतियोंमें शरीरसंबंधी अहंकार ममकारभावोंसे रहित हैं । जैसे अनेक गृहोंमें संचार करनेवाला रत्नदीपक एक है, उसी प्रकार एकरूप आत्माको प्राप्त हुए हैं । अचलित चैतन्य-विलासरूप आत्मव्यवहारको अंगीकार करते हैं । असमीचीन क्रियाओंके मूलकारण मनुष्य-व्यवहारके आश्रित नहीं होते।
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