SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 274
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १] प्रवचनसारः Jain Education International विस्तारसामान्यसमुदायेनाभिधावताऽऽयतसामान्यसमुदायेन च द्रव्यनाम्नाभिनिर्वर्त्त्यमानो द्रव्यमय एव । यथैव च पटेऽवस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव, तथैव च पदार्थेष्ववस्थायी विस्तारसामान्यसमुदायोऽभिधावन्नायतसामान्यसमुदायो वा द्रव्यनामा गुणैरभिनिर्वर्त्यमानो गुणेभ्यः पृथगनुपलम्भाद्गुणात्मक एव । यथैव चानेकपटात्मको द्विपटिका त्रिपटिकेति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकपुद्गलात्मको द्व्यणुकख्यणुक इति समानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव चानेककौशेयककार्पासमयपटात्मको द्विपटिकात्रिपटिकेत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः, तथैव चानेकजीवपुद्गलात्मको देवो मनुष्य इत्यसमानजातीयो द्रव्यपर्यायः । यथैव च कचित्पटे स्थूलात्मीयागुरुलघुगुणद्वारेण कालक्रमप्रवृत्तेन नानाविधेन परिणमनान्नानात्वप्रतिप्रत्तिर्गुणात्मकः स्वभावपर्यायः, तथैव च समस्तेष्वपि द्रव्येषु सूक्ष्मात्मीयात्मीयागुरुलघुगुणदृष्टान्तो यथा-नानासिद्धजीवेषु सिद्धोऽयं सिद्धोऽयमित्यनुगताकारः सिद्धजातिप्रत्ययः । नानाकालेष्वेकव्यक्तिगतोऽन्वय ऊर्ध्वतासामान्यं भण्यते । तत्र दृष्टान्तः यथा - य एव केवलज्ञानोत्पत्तिलक्षणे मुक्तात्मा द्वितीयादिलक्षणेष्वपि स एवेतिप्रतीतिः, अथवा नानागोशरीरेषु गौरयं गौरयमिति गोजातिप्रतीतिस्तिर्यक्सामान्यम् । यथैव चैकस्मिन् पुरुषे बालकुमाराद्यवस्थासु स एवायं देवदत्त इति प्रत्यय ऊर्ध्वता सामान्यम् । दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि द्रव्याणि गुणात्मकानि भणितानि, अन्वयिनो गुणा अथवा सहभुवो गुणा इति गुणलक्षणम् । यथा अनन्तज्ञानसुखादिविशेषगुणेभ्यस्तथैवागुरुलघुकादिसामान्यगुणेभ्यश्चाभिन्नत्वाद्गुणात्मकं भवति सिद्धजीवद्रव्यं, तथैव स्वकीयविशेषसामान्यगुणेभ्यः सकाशादभिन्नत्वात् सर्वद्रव्याणि गुणात्मकानि अनेक द्रव्य मिलकर जो एक पर्यायका होता है, सो द्रव्यपर्याय है यह द्रव्यपर्याय दो प्रकार है, एक समान जातीय, दूसरा असमान जातीय । समान जातीय जैसे अनेक जातिके पुद्गलरूप यणुक त्र्यणुक आदि, और असमान जातीय जैसे- जीव पद्गल मिलकर देव मनुष्यादि पर्याय, और भिन्न जातीय द्रव्यके संयोगसे गुणकी परिणतिरूप गुणपर्याय होती है, सो भी दो प्रकार है, एक स्वभाव गुणपर्याय, दूसरी विभाव गुणपर्याय | स्वभाव गुणपर्याय वह है, जो समस्त द्रव्य अपने अपने अगुरुलघुगुणोंसे समय समय षट्गुणी हानि वृद्धिरूप परिणमन करें, और विभावगुण पर्याय वह है, जो वर्णादि गुण पुद्गलस्कंधो में ज्ञानादि गुण जीवमें पुद्गलके संयोगके पहले आगामी दशामें हीनाधिक होकर परिणमन करें। आगे इसीको उदाहरणसे दृढ़ करते हैं-जैसे वस्त्र शुक्लादि गुणोंसे अपनी परिणतिरूप पर्यायसे सिद्ध हैं, इसलिये गुणपर्यायमय वस्त्र है। इसी प्रकार द्रव्य गुणपर्यायमय है, और जैसे वस्त्र शुक्लादि गुण पर्यायों से जुदा नहीं है, इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्यायोंसे जुदा नहीं है । जैसे वस्त्रके दो तीन पाट मिलकर समानजातीय पर्याय होता है, उसी प्रकार पुगलके द्व्यणुक त्र्यणुकादि अनेक समानजातीय पर्याय होते हैं । जैसे वस्त्रके रेशम कपासके दो तीन पाट मिलके असमान जातीय द्रव्यपर्याय होता है, उसी प्रकार जीव पुद्गल मिलकर देव मनुष्यादि असमान जातीय द्रव्यपर्याय होते हैं । और जैसे किसी वस्त्रमें स्थूल अपने अगुरुलघुगुण द्वारा 1 १०९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy