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________________ १०३ ९१] प्रवचनसारः पाणि द्रव्याणि स्वपरावच्छेदेनापरिच्छिन्दम्नश्रद्दधानो वा एवमेव श्रामण्येनात्मानं दमयति स खलु न नाम श्रमणः । यतस्ततोऽपरिच्छिन्नरेणुकनककणिकाविशेषाद्धलिधावकात्कनकलाभ इव निरुपरागात्मतत्त्वोपलम्भलक्षणो धर्मोपलम्भो न संभूतिमनुभवति ॥ ९१ ॥ अथ 'उवसंपयामि सम्मं जत्तो णिवाणसंपत्ती' इति प्रतिज्ञाय 'चारित्तं खलु धम्मो धम्मो जो सो समो त्ति णिट्ठिो' इति साम्यस्य धर्म निश्चित्य 'परिणमदि जेण दव्वं तत्कालं तम्मय त्ति पण्णत्तं तम्हा' इति यदात्मनो धर्मत्वमासूत्रयितुमुपक्रान्तं, यत्मसिद्धये च 'धम्मेण परिणदप्पा अप्पा जदि सुद्धसंपओगजुदो पावदि णिवाणमुहं' इति निर्वाणसुखसाधनशुद्धोपयोगोऽधिकर्तुमारब्धः, शुभाशुभोपयोगौ च विरोधिनौ निर्ध्वस्तौ, शुद्धोपयोगस्वरूपं चोपवर्णितं, तत्प्रसादजौ चात्मनो ज्ञानानन्दौ सहजौ समुद्योतयता संवेदनस्वरूपं सुखस्वरूपं च प्रपश्चितम् । समाप्तः । अथ निर्दोषिपरमात्मप्रणीतपदार्थश्रद्धानमन्तरेण श्रमणो न भवति, तस्माच्छुद्धोपयोगलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति निश्चिनोति—सत्तासंबद्धे महासत्तासंबन्धेन सहितान् एदे एतान् पूर्वोक्तशुद्धजीवादिपदार्थान् । पुनरपि किंविशिष्टान् । सविसेसे विशेषसत्तावान्तरसत्तास्वकीयस्वरूपसत्ता तया सहितान् जो हि णेव सामण्णे सद्दहदि यः कर्ता द्रव्यश्रामण्ये स्थितोऽपि न श्रद्धत्ते हि स्फुटं ण सो समणो निजशुद्धात्मरुचिरूपनिश्चयसम्यक्त्वपूर्वकपरमसामायिकसंयमलक्षणश्रामण्याभावात्स श्रमणो न भवति । इत्थंभूतभावश्रामण्याभावात् तत्तो धम्मो ण संभवदि तस्मात्पूर्वोक्तद्रव्यश्रमणात्सकाशान्निरुपरागशुद्धात्मानुभूतिलक्षणधर्मोऽपि न संभवतीति सूत्रार्थः ॥ ९१ ॥ अथ ‘उवसंपयामि सम्म' इत्यादि नमस्कारगाथायां यत्प्रतिज्ञातं, तदस्थामें [सत्तासंबद्धान् ] सत्ता भावसे सामान्य अस्तिपने सहित और [सविशेषान् ] अपने अपने विशेष अस्तित्व सहित [एतान् ] इन छह द्रव्योंको [नैव श्रद्दधाति] नहीं श्रद्धान करता, [सः] वह जीव [श्रमणः ] मुनि [न] नहीं है, और [ततः] उस द्रव्यलिंगी ( बाह्य भेषधारी) मुनिसे [ धर्मः] शुद्धोपयोगरूप आत्मीक-धर्म [न संभवति ] नहीं हो सकता । भावार्थअस्तित्व दो प्रकारका है, एक सामान्य अस्तित्व, दूसरा विशेष अस्तित्व । जैसे वृक्ष जातिसे वृक्ष एक हैं, आम-निम्बादि भेदोंसे पृथक् पृथक् हैं, इसी प्रकार द्रव्य सामान्य अस्तित्वसे एक है, विशेष अस्तिबसे एक है, विशेष अस्तित्वसे अपने जुदा जुदा स्वरूप सहित है । इन सामान्य विशेष भाव संयुक्त द्रव्योंको जो जीव मुनि अवस्था धारण करके नहीं जानता है, और स्व पर भेद सहित श्रद्धान नहीं करता है, वह यति नहीं है । सम्यक्त्व भावके विना द्रव्यलिंग अवस्थाको धारण करके व्यर्थ ही खेदखिन्न होता है, क्योंकि इस अवस्थासे आत्मीक-धर्मकी संभावना नहीं है । जैसे धूलका धोनेवाला न्यारिया यदि सोनेकी कणिकाओंको पहचाननेवाला नहीं होवे, तो वह कितना भी कष्ट क्यों न उठावे, परंतु उसे सुवर्णकी प्राप्ति नहीं होती, इसी प्रकार संयमादि क्रियामें कितना ही खेद क्यों न करे, परंतु लक्षणोंसे स्व पर भेदके विना वीतराग आत्म-तत्वकी प्राप्तिरूप धर्म इस जीवके उत्पन्न नहीं होता ॥ ९१ ॥ पूर्व ही आचार्यने "उवसंपयामि सम्म" इत्यादि गाथासे साम्यभाव मोक्षका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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