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________________ ८८ प्रवचनसारः वा अर्था गुणाः, द्रव्याणि क्रमपरिणामेनेयूति द्रव्यैः क्रमपरिणामेनार्यन्त इति वा अर्थाः पर्यायाः। यथा हि सुवर्ण पीततादीन् गुणान् कुण्डलादींश्च पर्यायानियत् तैरर्यमाणं वा अर्थों द्रव्यस्थानीयं, यथा च सुवर्णमाश्रयत्वेनेयतस्तेनाश्रयभूतेनार्यमाणा वा अर्थाः पीततादयो गुणाः, यथा च सुवर्ण क्रमपरिणामेनेयूतः तेन क्रमपरिणामेनार्यमाणा वा अर्थाः कुण्डलादयः पर्यायाः। एवमन्यत्रापि । यथा चैतेषु सुवर्णपीततादिगुणकुण्डलादिपर्यायेषु पीततादिगुणकुण्डलादिपर्यायाणां सुवर्णादपृथग्भावात्सुवर्णमेवात्मा तथा च तेषु द्रव्यगुणपर्यायेषु गुणपर्यायाणां द्रव्यादपृथग्भावाद्रव्यमेवात्मा ॥ ८७ ॥ अथैवं मोहक्षपणोपायभूतजिनेश्वरोपदेशलाभेऽपि पुरुषकारोऽर्थक्रियाकारीति पौरुषं व्यापारयति जो मोहरागदोसे णिहणदि उवलब्भ जोण्हमुवदेसं । सो सव्वदुक्खमोक्खं पावदि अचिरेण कालेण ॥ ८८॥ द्रव्यमेव स्वभाव इत्युपदेशः, अथवा द्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे गुणपर्यायाणामात्मा एव स्वभाव इति । अथ विस्तरः-अनन्तज्ञानसुखादिगुणान् तथैवामूर्तत्वातीन्द्रियत्वसिद्धत्वादिपर्यायांश्च इयर्ति गच्छति परिणमत्याश्रयति येन कारणेन तस्मादर्थो भण्यते । किम् । शुद्धात्मद्रव्यम् । तच्छुद्धात्मद्रव्यमाधारभूतमियर्ति गच्छन्ति परिणमन्त्याश्रयन्ति येन कारणेन ततोऽर्था भण्यन्ते । के ते । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाः । ज्ञानत्वसिद्धत्वादिगुणपर्यायाणामात्मा स्वभावः। क इति पृष्टे शुद्धात्मद्रव्यमेव स्वभावः, अथवा शुद्धात्मद्रव्यस्य कः स्वभाव इति पृष्टे पूर्वोक्तगुणपर्याया एव । एवं शेषद्रव्यगुणपर्यायाणामप्यर्थसंज्ञा बोद्धव्येत्यर्थः ॥८७॥ अथ दुर्लभजनोपदेशं लब्ध्वापि य एव मोहरागद्वेषानिहन्ति स एवाशेषदुःखक्षयं प्राप्नोतीत्यावेदयति—य प्राप्त होता है, क्योंकि आधारभूत द्रव्यको प्राप्त होता है, अथवा द्रव्य करके प्राप्त किया जाता है, इसलिये गुणोंका नाम 'अर्थ' है, और क्रमसे परिणमन करके द्रव्यको प्राप्त होते हैं, अथवा द्रव्य करके अपने स्वरूपको प्राप्त होते हैं, इसलिये पर्यायोंका नाम 'अर्थ' है। जैसे-सोना अपने पीत आदि गुणोंको और कुंडलादि पर्यायों( अवस्थाओं )को प्राप्त होता है, अथवा गुणपर्यायोंसे सुवर्णपनेको प्राप्त होता है, इसलिये सोनेको अर्थ कहते हैं, और जैसे आधारभूत सोनेको पीतत्वादि गुण प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इस कारण पीतत्वादि गुणोंको अर्थ कहते हैं, और जैसे क्रम परिणामसे कुंडलादि पर्याय सोनेको प्राप्त होते हैं, अथवा सोनेसे प्राप्त होते हैं, इसलिये कुंडलादि पर्यायोंको अर्थ कहते हैं । इस प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंका नाम अर्थ है । तथा जैसे सुवर्ण, पीतत्वादिगुण और कुंडलादि पर्यायोंमें पीतत्वादि गुण और कुंडलादि पर्यायोंका सोनेसे जुदापना नहीं है, इसलिये सुवर्ण अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है । उसी प्रकार द्रव्य, गुण, पर्यायोंमें गुणपर्यायोंको द्रव्यसे पृथक्पना नहीं है, इसलिये द्रव्य अपने गुणपर्यायोंका सर्वस्व है, आधार है, अर्थात् द्रव्यका गुणपर्यायोंसे अभेद है ॥ ८७ ॥ आगे यद्यपि मोहके नाश करनेका उपाय जिनेश्वरका उपदेश है, परंतु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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