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________________ ६६] प्रवचनसारः मुखत्वपरिणतेनिश्चयकारणतामनुपागच्छन्न जातु सुखतामुपढौकत इति ॥६५॥ अथैतदेव दृढयति एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥ ६६ ॥ एकान्तेन हि देहः सुखं न देहिनः करोति स्वर्गे वा। विषयवशेन तु सौख्यं दुःखं वा भवति स्वयमात्मा ॥६६॥ अयमत्र सिद्धान्तो यदिव्यवैक्रियिकत्वेऽपि शरीरं न खलु सुखाय कल्प्येतेतीष्टानामनिष्टानां वा विषयाणां वशेन सुखं वा दुःखं वा स्वयमेवात्मा स्यात् ॥ ६६॥ अथात्मनः स्वयमेव मुखपरिणामशक्तियोगिखाद्विषयाणामकिंचित्करत्वं द्योतयति तिमिरहरा जइ दिट्ठी जणस्स दीवेण णत्थि कायव्वं । तह सोक्खं सयमादा विसया किं तत्थ कुव्वंति ॥ ६७॥ देहकर्मरहितमुक्तात्मनां पुनर्यदनन्तातीन्द्रियसुखं तत्र विशेषेणात्मैव कारणमिति ॥ ६५ ॥ अथ मनुष्यशरीरं मा भवतु, देवशरीरं दिव्यं तत्किल सुखकारणं भविष्यतीत्याशङ्कां निराकरोति-एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि एकान्तेन हि स्फुटं देहः कर्ता सुखं न करोति । कस्य । देहिनः संसारिजीवस्य । क । सग्गे वा आस्तां तावन्मनुष्याणां मनुष्यदेहः सुखं न करोति, स्वर्गे वा योऽसौ दिव्यो देवदेहः सोऽप्युपचारं विहाय सुखं न करोति । विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हदि सयमादा किंतु निश्चयेन निर्विषयामूर्तस्वाभाविकसदानन्दैकसुखस्वभावोऽपि व्यवहारेणानादिकर्मबन्धवशाद्विषयाधीनत्वेन परिणम्य सांसारिकसुखं दुःखं वा स्वयमात्मैव भवति, न च देह इत्यभिप्रायः ॥ ६६ ॥ एवं मुक्तात्मनां देहाभावेऽपि सुखमस्तीति परिज्ञानार्थ संसारिणामपि देहः सुखकारणं न भवतीतिकथनरूपेण गाथाद्वयं गतम् । अथात्मनः विषयोंमें आप ही सुख मान लेता है । शरीर जड़ है, इसलिये सुखरूप कार्यका उपादान कारण अचेतन शरीर कभी नहीं हो सकता । सारांश यह है, कि संसार अवस्थामें भी शरीर सुखका कारण नहीं है, आत्मा ही सुखका कारण हैं ॥ ६५ ॥ आगे "संसार अवस्थामें भी आत्मा ही सुखका कारण है" इसी बातको फिर दृढ़ करते हैं-[एकान्तेन ] सब तरहसे [ हि] निश्चय कर [ देह ] शरीर [देहिनः] देहधारी आत्माको [स्वर्ग वा] स्वर्गमें भी [सुखं.] सुखरूप [ न करोति ] नहीं करता [तु] किंतु [विशयवशेन ] विषयोंके आधीन होकर [आत्मा स्वयं] यह आत्मा आप ही [सौख्यं वा दुःखं] सुखरूप अथवा दुःखरूप [ भवति ] होता है। भावार्थ-सब गतियोंमें स्वर्गगति उत्कृष्ट है, परंतु उसमें भी उत्तम वैक्रियकशरीर सुखका कारण नहीं है, औरोंकी तो बात क्या है। क्योंकि इस आत्माका एक ऐसा स्वभाव है, कि वह इष्ट अनिष्ट पदार्थोके वश होकर आप ही सुख दुःखकी कल्पना कर लेता है । यथार्थमें शरीर सुख दुःखका कारण नहीं है ॥ ६६ ॥ अब कहते हैं, कि आत्माका स्वभाव ही सुख है, इसलिये इन्द्रियोंके विषय भी सुखके कारण नहीं है-[यदि] जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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