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________________ ५९] प्रवचनसारः भृतमिदमेव महाप्रत्यक्षमभिप्रेतमिति ॥ ५८॥ अथैतदेव प्रत्यक्षं पारमार्थिकसौख्यत्वेनोपक्षिपति जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं । रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं ॥ ५९॥ जातं स्वयं समस्तं ज्ञानमनन्तार्थविस्तृतं विमलम् । रहितं तु अवग्रहादिभिः सुखमिति ऐकान्तिकं भणितम् ॥ ५९॥ स्वयं जातखात् , समस्तत्वात् , अनन्तार्थविस्तृतत्वात् , विमलत्वात् , अवग्रहादिरहितत्वाच्च प्रत्यक्षं ज्ञानं मुखमैकान्तिकमिति निश्चीयते । अनाकुलत्वैकलक्षणत्वात्सौख्यस्य, यतो हि परतो जायमानं पराधीनतया असमस्तमितरद्वारावरणेन कतिपयार्थप्रवृत्तमितरार्थबुभुत्सया समलमसम्यगवबोधेन अवग्रहादिसहितं, क्रमकृतार्थग्रहणखेदेन परोक्षं ज्ञानमत्यन्तमाकुलं भवति । ततो न तत् परमार्थतः सौख्यम् । इदं तु पुनरनादिज्ञानसामान्यस्वभावस्योपरि महाविकाशेनाभिव्याप्य खत एव व्यवस्थितत्वात्स्वयं जायमानमात्माधीनतया,समस्तात्मप्रदेशान् परमसमक्षज्ञानोपयोगीभवतीति सूत्राभिप्रायः ॥ ५८ ॥ एवं हेयभूतेन्द्रियज्ञानकथनमुख्यतया गाथाचतुष्टयेन तृतीयस्थलं गतम् । अथाभेदनयेन पञ्चविशेषणविशिष्टं केवलज्ञानमेव सुखमिति प्रतिपादयति-जादं जातम् उत्पन्नम् । किं कर्तृ । णाणं केवलज्ञानम् । कथं जातम् । सयं स्वयमेव । पुनरपि किंविशिष्टम् । समत्तं परिपूर्णम् । पुनरपि किंरूपम् । अणंतत्थवित्थडं अनन्तार्थविस्तीर्गम् । पुनः कीदृशम् । विमलं संशयादिमलरहितम् । पुनरपि कीदृक् । रहियं तु ओग्गहादिहिं अवग्रहादिरहितं चेति । एवं पञ्चविशेषणविशिष्टं यत्केवलज्ञानं सुहं ति एगंतियं भणियं तत्सुख भणितम् । कथंभूतम् । ऐकान्तिकं नियमेनेति । तथाहि-परनिरपेक्षत्वेन चिदानन्दैकस्वभावं निजशुद्धात्मानमुपादानकारणं कृत्वा समुत्पद्यमानत्वात्स्वयं जायमानं सत्सर्वशुद्धात्मप्रदेआगे यही अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान निश्चयसुख है, ऐसा अभेद दिखाते हैं— [स्वयं जातं] अपने आपसे ही उत्पन्न [ समस्तं] संपूर्ण | अनन्तार्थविस्तृतं] सब पदार्थोंमें फैला हुआ विमलं] निर्मल [तु] और [अवग्रहादिभिः रहितं] अवग्रह, ईहा आदिसे रहित [ज्ञानं ] ऐसा ज्ञान [ ऐकान्तिकं सुख ] निश्चय सुख है, [इति भणितं] इस प्रकार सर्वज्ञने कहा है । भावार्थ-जिसमें आकुलता न हो, वही सुख है । यह अतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान आकुलता रहित है, इसलिये सुखरूप है । यह परोक्षज्ञान पराधीन है, क्योंकि परसे (द्रव्येन्द्रियसे ) उत्पन्न है । असंपूर्ण है। क्योंकि आवरण सहित है। सब पदार्थोंको नहीं जाननेसे सबमें विस्ताररूप नहीं है, संकुचित हैं, संशयादिक सहित होनेसे मल सहित है, निर्मल नहीं है, क्रमवर्ती है, क्योंकि अवग्रह ईहादि युक्त है, और खेद (आकुलता) सहित होनेसे निराकुल नहीं है, इसलिये परोक्षज्ञान सुखरूप नहीं है, और यह अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान पराधीनता रहित एक निज शुद्धात्माके कारगको पाकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये आपसे ही उत्पन्न है, आवरण रहित होनेसे अपने आत्माके सब प्रदेशोंमें अपनी अनंत शक्ति सहित है, इसलिये सम्पूर्ण है, अपनी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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