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________________ कुन्दकुन्दविरचितः [अ० १, गा० ५५सामग्रीमार्गणव्यग्रतयात्यन्तविसंतुलखमवलम्बमानमनन्तायाः शक्तेः परिस्खलनानितान्तविक्लवीभूतं महामोहमल्लस्य जीवदवस्थत्वात् परपरिणतिपवर्तिताभिप्रायमपि पदे पदे प्राप्तविप्रलम्भमनुपलम्भसंभावनामेव परमार्थतोऽहेति । अतस्तद्धेयम् ॥ ५५॥ अथेन्द्रियाणां स्वविषयमात्रेऽपि युगपत्मवृत्त्यसंभवाद्धेयमेवेन्द्रियज्ञानमित्यवधारयति फासो रसो य गंधो वण्णो सहो य पुग्गला होति । अक्खाणं ते अक्खा जुगवं ते णेव गेण्हति ॥५६॥ स्पर्शी रसश्च गन्धो वर्णः शब्दश्च पुद्गला भवन्ति । अक्षाणां तान्यक्षाणि युगपत्ताव गृह्णन्ति ॥५६॥ इन्द्रियाणां हि स्पर्शरसगन्धवर्णप्रधानाः शब्दश्च ग्रहणयोग्याः पुद्गलाः । अथेन्द्रियैर्युगपत्तेभावार्थः-इन्द्रियज्ञानं यद्यपि व्यवहारेण प्रत्यक्षं भण्यते, तथापि निश्चयेन केवलज्ञानापेक्षया परोक्षमेव । परोक्षं तु यावतांशेन सूक्ष्मार्थ न जानाति तावतांशेन चित्तखेदकारणं भवति । खेदश्च दुःखं, ततो दुःखजनकत्वादिन्द्रियज्ञानं हेयमिति ॥ ५५ ॥ अथ चक्षुरादीन्द्रियज्ञानं रूपादिस्वविषयमपि युगपन्न जानाति तेन कारणेन हेयमिति निश्चिनोति-फासो रसो य गंधो वण्णो सद्दो य पुग्गला होति स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दाः पुद्गला मूर्ता भवन्ति । ते च विषयाः। केषाम्। अक्खाणं स्पर्शनादीन्द्रियाणां ते अक्वा तान्यक्षाणीन्द्रियाणि कर्तृणि जुगवं ते णेव गेहंति युगपत्तान् स्वकीयविषयानपि न गृह्णन्ति न जानन्तीति । अयज्ञान है। यह परोक्षज्ञान मूर्तिवन्त द्रव्येद्रियके आधीन है, मूर्तीक पदार्थीको जानता है, अतिशयकर चंचल है, अनंतज्ञानकी महिमासे गिरा हुआ है, अत्यंत विकल है, महा-मोह-मल्लकी सहायतासे पर-परिणतिमें प्रवर्तता है, पद पद (जगह जगह) पर विवादरूप, उलाहना देने योग्य है, वास्तवमें स्तुति करने योग्य नहीं है, निंद्य है, इसी लिये हेय है ॥ ५५ ॥ आगे इंद्रियज्ञान यद्यपि अपने जानने योग्य मूर्तीक पदाऑको जानता है, तो भी एक ही बार नहीं जानता, इसलिये हेय है, ऐसा कहते हैं- [अक्षाणां] पाँचो इन्द्रियोंके [ स्पर्शः ] स्पर्श [ रसः] रस [च गन्धः] और गंध [ वर्णः ] रूप [च] तथा [ शब्दः ] शब्द ये पाँच विषय [ पुद्गलाः ] पुद्गलमयी [ भवन्ति ] हैं। अर्थात् पाँच इंद्रियाँ उक्त स्पर्शादि पाँचों विषयोंको जानती हैं, परंतु [ तानि अक्षाणि ] वे इंद्रियाँ [ तान्] उन पाँचों विषयोंको [युगपत् ] एक ही बार [ नैव] नहीं [गृह्णन्ति] ग्रहण करतीं । भावार्थये स्पर्शनादि पाँचों इन्द्रियाँ अपने अपने स्पर्शादि विषयोंको ग्रहण करती हैं, परंतु एक ही समय ग्रहण नहीं कर सकतीं । अर्थात् जिस समय जिह्वा इंद्रिय रसका अनुभव करती है, उस समय अन्य श्रोत्रादि इंद्रियोंका कार्य नहीं होता । सारांश-एक इंद्रियका जब कार्य होता है, तब दूसरीका बन्द रहता है, क्योंकि अंतरंगमें जो क्षायोपशमिकज्ञान है, उसकी शक्ति क्रमसे प्रवर्तती है । जैसे काकके दोनों नेत्रोंकी पूतली एक ही होती है, परंतु वह पूतली ऐसी चंचल है, कि लोगोंको यह मालूम पड़ता है, जो दोनों नेत्रों में जुदी जुदी पूतली हैं। यथार्थमें वह एक ही है, जिस समय वह जिस नेत्रसे देखता है, उस समय उसी नेत्रमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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