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प्रकाशक का निवेदन
(तृतीय संस्करण )
'प्रवचनसार' का पहला संस्करण बीर संवत् २४३८ में प्रकाशित हुआ था । उसका संपादन स्वर्गीय पंडित मनोहरलालजीने किया था । लगभग २३ वर्ष के बाद इसका दूसरा संस्करण वीर संवत् २४६१ में प्रकाशित हुआ था । यह दूसरा नया संस्करण वैशिष्टयपूर्ण ही था । इसका संपादन प्रोफेसर आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्यायने किया । उन्होंने इसमें एक अंग्रेजी भूमिका और साथ साथ मूल ग्रन्थका अंग्रेजी अनुवाद भी दिया । यह भूमिका उनके असाधारण पांडित्य और दीर्घकालव्यापी अध्ययन की साक्षी देनेकेलिए यथेष्ट है । ग्रंथ के प्रकाशन के बाद पाश्चात्य और पौर्वात्य विद्वानोंने इसकी बहुत प्रशंसा की । मुख्यतया इसी कुंदकुंवाचार्य संबंधी निबंध पर बम्बई विश्वद्यिलयने श्रीमान् पंडित उपाध्यायजी को 'डी. लिट् ' की उपाधि प्रदान की। यह ग्रंथमाला की दृष्टिसे बड़े गौरव की बात है । इसके सिवा मूल-ग्रंथ के साथ अँग्रेजी अनुवाद के भी दिये जानेसे कई विश्वविद्यालयों में स्नातक और स्नातकोत्तर परीक्षाओं के लिए 'प्रवचनसार' एक पाठ्य पुस्तक रूपसे प्रचलित है । इतना ही नहीं किंतु कुंदकुंदाचार्य के किसी ग्रंथको संशोधनात्मक दृष्टिसे पढनेवाले, श्रीमान् उपाध्ये के इस महा-निबंध रूप प्रस्तावना के बिना अपने अध्ययनको अधूरा पायेंगे।
श्री गोपालदास जीवाभाई पटेलने 'श्री कुंदकुंदाचार्यना तृण रत्नो' (अहमदाबाद १९३७) नामक अपनी पुस्तकमें कुंदकुंदाचार्यके तीन मुख्य ग्रंथों का सार देने का प्रयत्न किया है। इस ग्रंथ का उपोद्घात पढनेसे स्पष्ट हो जाता है कि डा. उपाध्यायजी द्वारा लिखित प्रस्तावना का मुख्य रूपसे उपयोग किया गया है । उनके प्रयुक्त 'वेदांत' आदि शब्दोंसे कुछ भ्रम पैदा होने की संभावना है। परंतु यह परिभाषा उपाध्यायजी की नहीं है । अभी हालमें पंडित कैलासचन्द्रजीने 'कुंदकुंद प्राभृतसंग्रह' नामक (शोलापुर १९६० ई) एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है । इस ग्रंथ की प्रस्तावनामें 'प्रवचनसार' की अंग्रेजी प्रस्तावना का पूरा उपयोग किया गया है । अन्य कई निबंधों में भी इस प्रस्तावना का उपयोग हुआ ही है । राजचंद्र ग्रंथमाला के प्रकाशकों के लिए उपाध्यायजी द्वारा संपादित प्रवचनसार की आवृत्ति एक पथप्रदर्शक बनगयी है और उपाध्यायजी की संपादनशैली कई लोगोंने अपनायी है ।
गत पांच-छः सालसे 'प्रवचनसार' की प्रतियाँ समाप्त हो गयी हैं । हमें अत्यंत खुशी है कि डा. उपाध्यायजीने तृतीय आवृत्ति के संपादन की हमारी प्रार्थना के अनुसार जिम्मेदारी लो, और इस बार भी अच्छे रूपमें इस ग्रंथको प्रकाशित करनेमें बडी सहायता दी। हमारी इच्छा थी कि यह ग्रंथ इससे भी जल्दी प्रकाशित हो जाए, किंतु मुद्रण व्यवस्था की कठिनाई से कुछ विलंब हुआ। इसका हमें खेद है । यह आवृत्ति तीस वर्षोंके बाद प्रकाशित हो रही है । इसमें कुछ वैशिष्ट्य भी हैं । विद्वानों में मूल प्राकृत ग्रंथ पढने की प्रवृत्ति बढ रही है । इसी उद्देश्यसे इस आवृत्ति में मूल और कुछ नये हस्तलिखितों का पाठांतर भी दिया गया है । हमें विश्वास है, देशके एक महान् आध्यात्मिक श्रीमद् राजचन्द्रजीके नामसे प्रचलित ग्रंथमाला में यह प्रवचनसार की आवृत्ति स्थायी रूपसे एक अमूल्य और सुगंधी सुमन बनकर रहेगी ।
इस ग्रंथ को सुचारु रूपसे प्रकाशित करने में ग्रंथमाला के अधिकारियों के और हमारे सुयोग्य संपादक डा. ए. एन्. उपाध्येजी के हम अत्यंत आभारी हैं । हमारी यह तीव्र इच्छा है कि भारतीय साहित्य प्रकाशन क्षेत्र में हमारी ग्रंथमाला का सुयोग्य स्थान रहे, और इस कारणसे हम श्रीमान् और विद्वानों के सहयोग की भी अपेक्षा करते हैं ।
श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास, पोस्ट बोरोआ, वाँया आनंद ( प. रेल्वे) दिनांक ४-९-१९६४.
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निवेदक रावजीभाई देसाई
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