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प्रवचनसारः
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भूतचेतनद्रव्यसमवायाभावादचेतनं भवद्रूपादिगुणकल्पतामापन्नं न जानाति । यदि पुनर्ज्ञानादधिक इति पक्षः कक्षीक्रियते तदावश्यं ज्ञानादतिरिक्तत्वात् पृथग्भूतो भवन् घटपटादिस्थानीयतामापन्नो ज्ञानमन्तरेण न जानाति, ततो ज्ञानप्रमाण एवायमात्माभ्युपगन्तव्यः ।। २४-५ ॥ अथात्मनोऽपि ज्ञानवत् सर्वगतत्वं न्यायायातमभिनन्दति—
गदो जिणवसहो सच्चे वि य तग्गया जगदि अट्ठा । णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिया ॥ २६ ॥ सर्वगतो जिनवृषभः सर्वेऽपि च तद्गता जगत्यर्थाः । ज्ञानमयत्वाच्च जिनो विषयत्वात्तस्य ते भणिताः ॥ २६ ॥
ज्ञानं हि त्रिसमयावच्छिन्न सर्वद्रव्यपर्यायरूपव्यवस्थितविश्वज्ञेयाकारानाक्रामत् सर्वगतमुक्तं तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद्भगवानपि सर्वगत एव । एवं सर्वगतज्ञानविषयत्वात्सर्वेऽर्था उष्णगुणो यथा शीतलो भवति तथा स्वाश्रयभूतचेतनात्मकद्रव्यसमवायाभावात्तस्यात्मनो ज्ञानमचेतनं भवत्सत् किमपि न जानाति । अहिओ वा णाणादो णाणेण विणा कहं णादि अधिको वा ज्ञानात्सकाशात्तर्हि यथोष्णगुणाभावेऽग्निः शीतलो भवन्सन् दहनक्रियां प्रत्यसमर्थो भवति तथा ज्ञानगुणाभावे सत्यात्माप्यचेतनो भवन्सन् कथं जानाति न कथमपि अयमत्र भावार्थः—ये केचनात्मानमङ्गुष्ठपर्वमात्रं, श्यामाकतण्डुलमात्रं वटककणिकादिमात्रं वा मन्यन्ते ते निषिद्धाः । येऽपि समुद्रातसप्तकं विहाय देहावर्णकी तरह अचेतन हो जावेगा, और अचेतन ( जड़ ) होनेसे कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अग्निसे उष्णगुण अधिक माना जावे, तो अधिक उष्णगुण अग्निके बिना शीतल होनेसे जला नहीं सकता, और जो ज्ञानसे आत्मा अधिक होगा, अर्थात् आत्मासे ज्ञान हीन होगा, तो घट वस्त्रादि पदार्थोंकी तरह आत्मा ज्ञान विना अचेतन हुआ कुछ भी नहीं जान सकेगा, जैसे अनि उष्णगुणसे जितनी अधिक होगी, उतनी ही शीतल होनेके कारण ईंधनको नहीं जला सकती । इस कारण यह सिद्ध हुआ, कि आमा ज्ञानके ही प्रमाण है, कमती बढ़ती नहीं है ।। २४-२५ ॥ आगे जिस तरह ज्ञान सर्वगत है, उसी तरह आत्मा भी सर्वगत है, ऐसा कहते हैं - [ ज्ञानमयत्वात् ] ज्ञानमयी होनेसे [ जिनवृषभः] जिन अर्थात् गणधरादिदेव उनमें वृषभ (प्रधान) [जिनः ] सर्वज्ञ भगवान् [सर्वगतः ] सब लोक अलोकमें प्राप्त हैं, [च] और [ तस्य विषयत्वात् ] उन भगवानके जानने योग्य होनेसे [ जगति ] संसारमें [सर्वेपि च ते अर्थाः ] वे सब ही पदार्थ [ तद्गताः ] उन भगवानमें प्राप्त हैं, ऐसा [भणिताः ] सर्वज्ञने कहा है || भावार्थ - अतीत अनागत वर्तमान काल सहित सब पदाथके आकारोंको (पर्यायों को ) जानता हुआ, ज्ञान सर्वगत कहा है, और भगवान् ज्ञानमयी हैं, इस कारण भगवान भी सर्वगत ही हैं, और जिस तरह आरसीमें घटपटादि पदार्थ झलकते हैं, वैसे ज्ञानसे अभिन्न भगवानमें भी सब पदार्थ प्राप्त हुए हैं, क्योंकि वे पदार्थ भगवानके जानने योग्य हैं । निश्चयकर ज्ञान आत्माप्रमाण है, क्योंकि निर्विकार निराकुल अनन्तसुखको आत्मामें आप वेदता है, अर्थात् अनुभव
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