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________________ १४] प्रवचनसारः सुविदितपदार्थसूत्रः संयमतपःसंयुतो विगतरागः । श्रमणः समसुखदुःखो भणितः शुद्धोपयोग इति ॥ १४ ॥ सूत्रार्थज्ञानबलेन स्वपरद्रव्यविभागपरिज्ञानश्रद्धानविधानसमर्थत्वात्सुविदितपदार्थसूत्रः । सकलषड्जीवनिकाय निशुम्भनविकल्पात्पञ्चेन्द्रियाभिलाषविकल्पाच्च व्यावर्त्यात्मनः शुद्धस्वरूपे संयमनात्, स्वरूपविश्रान्तनिस्तरङ्गचैतन्यप्रतपनाच्च संयमतपः संयुतः । सकलमोहनीयविपाक विवेकभावनासौष्ठव स्फुटीकृतनिर्विकारात्मस्वरूपत्वाद्विगतरागः । परमकलावलोकनाननुभूयमानसातासात वेदनीयविपाक निर्वर्तितसुखदुःखजनितपरिणामवैषम्यात्समसुखदुःखः श्रमणः शुद्धोपयोग इत्यभिधीयते ॥ १४॥ १५ अथ शुद्धोपयोग लाभानन्तरभाविविशुद्धात्मस्वभावलाभमभिनन्दति त्वेन विदिता ज्ञाता रोचिताश्च निजशुद्धात्मादिपदार्थास्तत्प्रतिपादकसूत्राणि च येन स सुविदितपदार्थसूत्रो भयते । संजमत संजुदो बाह्ये द्रव्येन्द्रियव्यावर्तनेन षड्जीवरक्षणेन चाभ्यन्तरे निजशुद्धात्मसंवित्तिबलेन स्वरूपे संयमनात् संयमयुक्तः, बाह्याभ्यन्तरतपोबलेन कामक्रोधादिशत्रुभिरखण्डित प्रतापस्य स्वशुद्धात्मनि प्रतपनाद्विजयनात्तपःसंयुक्तः । विगदरागो वीतरागशुद्धात्मभावनाबलेन समस्तरागादिदोषरहितत्वाद्वीतरागः । समसुदुक्खो निर्विकारनिर्विकल्पसमावेरुद्गता समुत्पन्ना तथैव परमानन्तसुखरसे लीना तल्लया निर्विकारस्वसंवित्तिरूपा या तु परमकला तदम्भेनेष्टानिष्टेन्द्रियविषयेषु हर्षविवादरहितत्वात्समसुख दुःखः समणो एवं गुणविशिष्टः श्रमणः परममुनिः भणिदो सुद्धोवओगो त्ति शुद्धोपयोगो भगित इत्यभिप्रायः ॥ १४ ॥ एवं शुद्धोपयोगफलभूतानन्तसुखस्य शुद्धोपयोगपरिणतपुरुषस्य च कथनरूपेण पञ्चमस्थले गाथाद्वयं गतम् ॥ (अथास्यान्तराधिकारस्योपोद्घातः )- -अथ प्रवचनसारख्याख्यायां मध्यमरुचिशिष्यप्रतिबोधनार्थायां परम मुनि शुद्रोपयोग भावस्वरूप परिणमता है । इस प्रकार वीतरागदेवने कहा है । कैसा है, वह श्रमण अर्थात् मुनि । [ सुविदितपदार्थसूत्रः ] अच्छी रीति से जान लिये हैं, जीवादि नव पदार्थ तथा इन पदार्थोंका कहनेवाला सिद्धांत जिसने, अर्थात् जिसने अपना और परका भेद भले प्रकार जान लिया है, श्रद्धान किया है, तथा निजस्वरूपमें ही आचरण किया है, ऐसा मुनीश्वर ही शुद्धोपयोगवाला है । फिर कैसा है ? [ संयमतपः संयुतः ] पाँच इन्द्रिय तथा मनकी अभिलाषा और छह कायके जीवोंकी हिंसा इनसे आत्माको रोककर अपने स्वरूपका आचरण रूप जो संयम, और बाह्य तथा अंतरंग बारह प्रकार के तपके बलकर स्वरूपकी स्थिरता के प्रकाशते ज्ञानका तपन ( दैदीप्यमान होना ) स्वरूप तप, इन दोनों कर सहित है । फिर कैसा है ? [ विगतरागः ] दूर हुआ हैं, परक्रयते रमण करना रूप परिणाम जिसका । फिर कैसा है ? [ समसुखदुःखः ] समान हैं, सुख और दुःख जिसके अर्थात् उत्कृष्टज्ञान की कलाकी सहायताकर इष्ट वा अनिष्टरूप इन्द्रियोंके विषयोंमें हर्ष तथा खेद नहीं करता है, ऐसा जो श्रमण है, वही शुद्धोपयोगी कहा जाता है ॥ १४ ॥ आगे शुद्धोपयोगके लाभके बाद ही शुद्ध आत्मस्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003289
Book TitlePravachanasara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year1964
Total Pages612
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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