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दीक्षाग्रहणके विषय में बीकानेर में घरवालोंकी सम्मति न होने के कारण बीस वर्षकी उम्र में सं. १९६७ की अक्षयतृतीयाको अहमदा बादमें शान्तमूर्ति पूज्यपाद मुनिप्रवरश्रीहंसविजयजी महाराजके पुण्य करकमलों से दीक्षा लेकर पुण्यनामधेय साध्वीजी श्रीदानश्रीजी महाराजकी शिष्या बनी और सं. १९६८ की वसन्तपंचमी के रोज पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीविजयदानसूरीजीके पवित्र करकमलोंसे आपकी बडी दीक्षा हुई ।
आपका दीक्षाकाल बावन वर्षका रहा । इस सुदीर्घ दीक्षापर्यायमें आपने मासक्षमण, बीसस्थानकतप, सिद्धितप, अष्टापदतप, सोलह उपवास, पन्द्रह उपवास, ग्यारह उपवास, नव उपवास, आठ उपवास, पांच उपवास, चार उपवास, छकैया आदि विभिन्न तपोंकी आराधना यथाशक्ति की । तपस्या पर आपका ध्यान विशेषरूपसे था ।
आपने अपने साध्वीजीवनमें छोटे बड़े अनेक तीर्थोंकी यात्रा, जैसे आबूजी, शत्रुंजयजी, गिरनारजी, तारंगाजी करके जीवन सफल किया शत्रुंजयकी निन्याणवे यात्रा नव की, जिसमें पांच दादाकी और चार तलहटीकी यात्रा की। अपने गृहस्थकालमें भी कई तीर्थोके दर्शन किये। कई तीर्थोका पुनरुद्धार करनेके लिए जगह २ उपदेश दे कर आर्थिक सहायता भी दिलाई।
और भी आपने जीवन में कई महान कार्य किए -
१. बीकानेर में आपके उपदेशसे दादावाडी बनी, उसमें गुरुमन्दिर भी आपके उपदेशानुसार ही बनवाया गया ।
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