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________________ कालसप्ततिका | जगनभप-ध-अ- इगजिप-ट्ठिअ-नि सि-नि- वजि-स-पु-अ-भ-अ-पर-वणका ॥५०॥ इय सुत्ताओ भणिया, वियारपंचासिया य सपरकए । मुणिसिरिआणंदविमलसूरिवराणं विणेएण ॥ ५१ ॥ १२३ कालसप्ततिका । देविंदणयं विज्जाणंदमयं धम्मकित्ति कुलभवणं । नमिऊण जिणं बुच्छं, कालसरूवं जहासुत्तं ॥१॥ सुहुमद्वायरद सकोडिकोडिछअराऽवसप्पिणुसपिणी । ता दुन्नि कालचकं, वीसायरकोडिकोडीओ ॥२॥ मुंडियइगाइसगदिणकुरुनरकेसचिअमनिलजलगणिणो । अविसयमुसेहजोयणपिहुच पल्लमिह पलिओमं ॥३॥ पजथूलकुतणुतणुसमअसंखदल के सहर सुहुमथूले । अद्धुद्वारे खित्ते, पएस वाससयसमयसमया ॥४॥ अस्संख संखवासा, असंखुसप्पिणि कमा सुहुममाणं । थूलाण संखवासा, संखसमसप्पिणि असंखा ||५|| काला गाइ अद्धा, दीवादुद्धारि खित पुढवाई | सुमेण मिणसु दसकोडिकोडिपलिए हिँ अयरं तु ॥ ६॥ अ० - असंख्यात; जगनभप ० - जगन्नभः प्रदेश = लोकाकाशप्रदेश, ध०-धर्मास्तिकाय प्रदेश, अ० - अधर्मास्तिकाय प्रदेश, इगजिप० - एकजीवप्रदेश, डिअ०स्थित्यध्यवसायस्थान, नि०- निगोद । सि० - सिद्ध, नि० - निगोदजीव, वजि० - वनस्पतिजीव स० - समय, पु०- पुद्गल, अ० - अभव्य, भ० - भव्य, अ०अलोक, पर०- परवडिया = पतित, वणका० - वनस्पतिकायस्थिति, एतान्यनन्तानि ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003287
Book TitleNavsmaranadisangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVicharshreeji, Damayantishreeji
PublisherNagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
Publication Year1964
Total Pages258
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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