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और लगभग पचास भाण्डारोंमें तो प्रत्यक्ष बैठकर काम किया है। इतने परिमित अनुभवसे भी जो साधन-सामग्री ज्ञात एवं हस्तगत हुई है उसके आधार पर मैं कह सकता हूँ कि वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा के प्राचीन तथा मध्ययुगीन शास्त्रोंके संशोधन आदिमें जिन्हें रस है उनके लिये अपरिमित सामग्री उपलब्ध है. I
श्वेताम्बर, दिगम्बर, स्थानकवासी और तेरहपंथी- इन चार फ़िरकोंके आश्रित जैन भाण्डार हैं । यों तो मैं उक्त सब फिरकोंके भाण्डारोंसे थोड़ा बहुत परिचित हूँ तो भी मेरा सबसे अधिक परिचय तथा प्रत्यक्ष सम्बन्ध श्वेताम्बर परम्परा भाण्डारोंसे ही रहा है । मेरा ख्याल है कि विषय तथा भाषाके वैविध्यकी दृष्टिसे, ग्रन्थ संख्या की दृष्टिसे, प्राचीनता की दृष्टिसे, ग्रन्थोंके क़द, प्रकार, अलंकरण आदिकी दृष्टिसे तथा अलभ्य, दुर्लभ्य और सुलभ परन्तु शुद्ध ऐसे बौद्ध, वैदिक जैसी जैनेतर परम्पराओके बहुमूल्य विविध विषयक ग्रन्थोंके संग्रहकी दृष्टिसे श्वेताम्बर परम्पराके अनेक भाण्डार इतने महत्त्व हैं जितने महत्व के अन्य स्थानोंके नहीं ।
माध्यमकी दृष्टिसे मेरे देखनेमें आए ग्रन्थोंके तीन प्रकार हैं - ताड़पत्र, कागज और कपड़ा । ताड़पत्रके ग्रन्थ विक्रमकी नवीं शतीसे लेकर सोलहवीं शती तक मिलते हैं। कागज़के ग्रन्थ जैन भाण्डारोंमें विक्रमकी तेरहवीं शतीके प्रारम्भसे अभी तक के मौजूद हैं । यद्यपि मध्य एशियाके यारकन्द शहर से दक्षिणकी ओर ६० मील पर कुगियर स्थानसे प्राप्त कागजके चार ग्रन्थ लगभग ई. स. की पाँचवी शतीके माने जाते हैं परन्तु इतना पुराना कोई ताड़पत्रीय या कागज़ी ग्रन्थ अभीतक जैन भाण्डारोंमें से नहीं मिला । परन्तु इसका अर्थ इतना ही है कि पूर्वकालमें लिखे गए ग्रन्थ जैसे जैसे बूढ़े हुए - नाशाभिमुख हुए वैसे वैसे उनके ऊपरसे नई नई नकलें होती गईं और नए रचे जानेवाले ग्रन्थ भी लिखे जाने लगे। इस तरह हमारे सामने जो ग्रन्थसामग्री मौजूद है उसमें, मेरी दृष्टिसे, विक्रमकी पूर्व शताब्दियोंसे लेकर नवीं
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