SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शतीके उत्तरार्द्ध में लिखी हुई ताड़पत्रकी पोथियोंकी स्याहीकी चमकमें हम ज़मीन-आसमान का फर्क देख सकते हैं। अलबत्ता, पन्द्रहवीं शतीके अन्तमें धरणा शाह आदिने लिखवाई हुई ताड़पत्रीय ग्रन्थोंकी स्याही कुछ ठीक है फिर भी उसी शती के पूर्वार्द्ध में लिखी गई पोथियों की स्याही के साथ उसकी तुलना नहीं की जा सकती। कागज़ के ऊपर लिखनेकी स्याहीका ख़ास प्रकार आज भी जैसेका तैसा सुरक्षित रहा है अर्थात् यह स्याही चिरकाल तक टिकी रहती है और ग्रन्थको नहीं बिगाड़ती । रंग जिस तरह ग्रन्थोंके लेखन आदि के लिये काली, लाल, सुनहरी, रुपहरी आदि स्याहियाँ बनाई जाती थीं उसी तरह ग्रन्थ आदिमें उसमें वर्णित विषयके अनुरूप विविध प्रकारके चित्रोंके आलेखनके लिये अनेक प्रकार के रंगोकी अनिवार्य आवश्यकता होती थी। ये रंग विविध खनिज और वनस्पति आदि पदार्थ तथा उनके मिश्रणमेंसे सुन्दर रूपसे बनाए जाते थे यह बात हम हमारी आँखोंके सामने आनेवाले सैकड़ों सचित्र ग्रन्थ देखनेसे समझ सकते हैं। रंगों का यह मिश्रण ऐसी सफ़ाईके साथ और ऐसे पदार्थोंका किया जाता था जिससे वह ग्रन्थको खा न डाले और खुद भी निस्तेज और धुँधला न पड़े । लेखनी जिस तरह लिखनेके लिये द्रव द्रव्यके रूप में स्याही आवश्यक वस्तु हैं उसी तरह लिखने के साधन रूपसे क़लम, तूलिका आदि भी आवश्यक पदार्थ हैं । यद्यपि अपनी अपनी सुविधासे अनुसार अनेक प्रकारके सरकण्डे तथा नरकट में से कलमें बना ली आती थीं फिर भी ग्रंथ लिखनेवाले लहि या लेखकको सतत और व्यवस्थित रूपसे लिखना पड़ता था, इसलिये ख़ास विशेष प्रकारके सरकण्डे पसंद किए जाते थे । ये सरकण्डे विशेषत अमुक प्रकारके बांसके, काले सरकण्डे अथवा दालचीनी की लकड़ी जैसे Jain Education International For Private & Personal Use Only १७ www.jainelibrary.org
SR No.003284
Book TitleGyanbhandaro par Ek Drushtipat
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyavijay
PublisherGujarat Vidyasabha
Publication Year1953
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy