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( ५५ )
लोध, मालणी काढचा निज देशथीजी ॥ पहेलां पण नृप मनमां वैराग्य, राज्य ग्राहक सुत पण नथी जी ॥२॥ देइ जमाइने राज्यनंमार, राय चारित्र शुन याद यो जी ॥ महेश्वरदत्त पण रुद्धि समृद्धि, सहु देइ शुद्ध संजम धरयो जी ॥ ३ ॥ महेश्वरदत्त नृप कियो विहार, संजम पाले निज निर्मलो जी || शास्त्र सिद्धां त नया गुरु पास, जेहनो यश ययो नऊलो जी ॥ ॥ ४ ॥ समुइ पर्यंत थयुं नृप राज्य, चुन हिमवं त लगें यागन्या जी ॥ उत्तमचरित्र थयो मा हाराज, जेहने चार घरणी धन्या जी ॥ ५ ॥ नमरके तुनी सांगलो वास, पष्ठित राक्षसनो धणी जी ॥ तेणे नैमित्तिक पूढिया ताम, किहां मुज घरि नाखुं नखणीजी ॥ ६ ॥ ते कहे सांनन राक्षस नाथ, पुत्री तुज परणी मदालसा जी ॥ पंच रतन तुज सार जंमा र, तेह लइ गयो गुन दिशा जी ॥ ७॥ मोहोट पहनी नामें वेलाकुल, सकलतट तणो स्वामी थयो जी॥राय विद्याधर सहु नम्या पाय, पुष्यथी राज्य मोहोटो नह्यो जी॥ ८ ॥ सांगली राक्षस एह विचार, चिंतवे चितमां एहवं जी ॥ देखो अलंघ्यनवितव्यता एह, विधिल
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