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को भी अर्हत्, महामुनि, सुवैद्य आदि विशेषणों से अभिहित करते हैं (यतो बुद्धो महामुनिः सुवैद्यत् - वही 465,466)। यहां हम देखते हैं कि जहां एक ओर अन्यदार्शनिक अपने विरोधी दार्शनिकों का खुलकर परिहास करते हैं- न्याय दर्शन के प्रणेता महर्षि गौतमको गाय का बछड़ाया बैल और महर्षि कणादको उल्लू कहते हैं - वहीं दूसरी ओर हरिभद्र जैसे जैन दार्शनिक अपने विरोधियों के लिए महामुनि और अर्हत् जैसे सम्मानसूचक विशेषणों का प्रयोग करते हैं। 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' में यद्यपि अन्य दार्शनिक
अवधारणाओं की स्पष्ट समालोचना है, किंतु संपूर्ण ग्रंथ में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं मिलता जहां हरिभद्र ने शिष्टता की मर्यादा का उल्लघन किया हो। इसी प्रकार हरिभद्र ने अन्य परंपराओं की समालोचना में भी जिस शिष्टता और आदर-भाव का परिचय दिया, वह हमें जैन और जैनेतर किसी भी परंपरा में उपलब्ध नहीं होता है।
यद्यपि आचार्य हेमचंद्र ने 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' (प्रचलित नाम स्याद्वादमंजरी) में अन्य दर्शनों की व्यंग्यात्मक शैली में समालोचना की, किंतु कहीं भी अन्य दर्शनों के प्रति अपशब्द का प्रयोग नहीं किया है।
सम्यक् समालोचना की यह परंपरा आगम-युग से प्रारंभ होकर क्रमश: सिद्धसेन दिवाकर के 'सन्मतितर्क', समंतभद्र की 'आप्तमीमांसा', मल्लवादी क्षमाश्रमण के . 'द्वादशारनयचक्र', जिनभद्रगणी की 'विशेषणवती', 'विशेषावश्यकभाष्य', हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय', 'शास्त्रवार्तासमुच्चय', अनेकांतजयपताका' आदि ग्रंथों में, साथ ही पूज्यपाद देवनंदी की 'सर्वार्थसिद्धि', अकलंक के 'राजवार्तिक', 'अष्टशती', 'न्याय विनिश्चय' आदि, विद्यानंदी के 'श्लोकवार्तिक', 'अष्टसहस्त्री' आदि, प्रभाचंद्र के 'प्रमेयकमलमार्तंड', रत्नप्रभ की 'रत्नाकर अवतारिका', हेमचंद्र की 'अन्ययोगव्यवच्छेदिका' आदिग्रंथोंतक मिलती है। फिरभी यह धारा आलोचकन होकर समालोचक और समीक्षक ही रही। यद्यपि हमें यह स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि परवर्ती मध्ययुग में वाद-विवाद में जो आक्रामक वृत्ति विकसित हुई थी,
जैन दार्शनिक भी उससे पूर्णतया अछूते नहीं रहे। फिर भी इतना अवश्य मानलेना होगा किजैन दार्शनिकों की भूमिका आक्रामक आलोचककीन होकर समालोचकया समीक्षक की रही है। क्योंकि उनके दर्शन की धुरी-रूप अनेकांतवाद की यही मांग थी। अनेकांत दृष्टि: समनवय के सूत्रों की खोज
जैन दार्शनिकों का दूसरा महत्त्वपूर्ण अवदान उनकी अनेकांत आधारित समन्वयात्मक दृष्टि है। जहां एक ओर जैनदार्शनिकों ने अन्य दर्शनों के एकांतवादिता के दोष का निराकरण करना चाहा, वहीं दूसरी ओर भारतीय दर्शनों के परस्पर विरोधी सिद्धांतों में समन्वय करना चाहा और अन्य दर्शनों में निहित सापेक्षिक सत्यता को देख
भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/7
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