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युग से प्रारंभ होकर सत्रहवीं शती के उपाध्याय यशोविजय के ग्रंथों तक निरंतर चलती रही, पर जैन दार्शनिक अन्य दर्शनों के प्रति अपनी समालोचना में कभी आक्रामक नहीं हुए। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमें मल्लवादी क्षमाश्रमण के द्वादशार नयचक्र (चौथी - पांचवी शती) में मिलता है, जिसमें उन्होंने अन्य दर्शनों की विधि-विधि, विधि, विधि-निषेध आदि रूपों में समीक्षा की। किंतु, वे किसी दर्शन या दार्शनिक विशेष का नाम लिए बिना, मात्र सिद्धांत की समीक्षा करते हैं। उन्होंने प्रतिपक्षी या समन्वयक जैन दर्शन का नाम लिए बिना मात्र उनकी समीक्षा की है।
जैन परंपरा में अन्य परंपराओं के विचारकों के दर्शनों एवं धर्मोपदेशों के प्रस्तुतीकरण का प्रथम प्रयास हमें ऋषिभाषित ('इसिभासियाई' - लगभग ई.पू. तीसरी शती) में परिलक्षित होता है। इस ग्रंथ में अन्य धार्मिक और दार्शनिक परंपराओं के प्रवर्तकों - यथा नारद, असितदेवल, याज्ञवल्क्य, सारिपुत्र आदि को 'अर्हत् ऋषि' कहकर संबोधित किया गया है और उनके विचारों को निष्पक्ष रूप में प्रस्तुत किया गया है । निश्चय ही वैचारिक उदारता एवं अन्य परंपराओं के प्रति समादर भाव का यह अति प्राचीनकाल का अन्यतम उदाहरण है। अन्य परंपराओं के प्रति ऐसा समादर भाव वैदिक और बौद्ध परंपरा के प्राचीन साहित्य में हमें कम ही उपलब्ध होते हैं। स्वयं जैन परंपरा में भी यह उदार दृष्टि अधिक काल तक जीवित नहीं रह सकी । परिणामस्वरूप यह महान ग्रंथ, जो कभी अंग साहित्य का एक भाग था, वहां से अलग कर परिपार्श्व में डाल दिया गया। यद्यपि सूत्रकृतांग, भगवती आदि आगम ग्रंथों में तत्कालीन अन्य परंपराओं के विवरण उपलब्ध होते हैं, किंतु उनमें अन्य दर्शनों और परंपराओं के प्रति वह उदारता और शालीनता परिलक्षित नहीं होती, जो ऋषिभाषित में थी। सूत्रकृतांग अन्य दार्शनिक और धार्मिक मान्यताओं का विवरण तो देता है, किंतु उन्हें मिथ्या, अनार्य या असंगत कहकर उनकी आलोचना भी करता है । भगवती में, विशेष रूप से मंखलि-गोशालक के प्रसंग में तो जैन परंपरा सामान्य शिष्टता का भी उल्लघन कर देती है। ऋषिभाषित में जिस मंखलि - गोशालक को 'अर्हत्-ऋषि' के रूप में संबोधित किया गया था, भगवती में उसी का अशोभनीय चित्र प्रस्तुत किया गया है। यहां यह चर्चा केवल इसलिए की जा रही है कि हम परवर्ती जैन दार्शनिक हरिभद्र, यशोविजय आदि की उदार दृष्टि का सम्यक् मूल्यांकन कर सकें और यह जान सकें कि न केवल जैन परंपरा में, अपितु समग्र भारतीय दर्शन में उनका अवदान कितना महान है। अन्य दर्शनों की एकांतवादिता की समीक्षा की दिशा में किए गए प्रयत्नों में प्रथम नाम सिद्धसेन दिवाकर का आता है। उन्होंने अपने ग्रंथ 'सन्मतितर्क' में यह स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है कि किस दर्शन का कौन-सा सिद्धांत किस 'नय' अर्थात् दृष्टिकोण के
4 / भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान
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