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उपाध्याय विनयविजय का भारतीय दर्शन में अवदान
डॉ. श्वेता जैन अतिथि अध्यापक-संस्कृत विभाग, जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर (राज.) फोन: 0291-2541052, 94137-82968
उपाध्याय विनयविजय तपागच्छ के आगमवेत्ता एवं दार्शनिक सन्त थे। उनका जन्म विक्रम संवत् 1661 में गुजरात में हुआ। उन्होंने अपने जीवनकाल में संस्कृत, प्राकृत और गुजराती में 40 कृतियों की रचना की । जिन्हें नौ भागों में विभाजित किया जा सकता है - 1. आगम व्याख्या एवं सज्झाय, 2. इतिहास विषयक, 3. आध्यात्मिक रचनाएँ, 4. स्तोत्र एवं स्तवन, 5. व्याकरण विषयक, 6. रास एवं फागु काव्य, 7. पूजा पद्धति विषयक, 8. दूत काव्य, गीति काव्य एवं विज्ञप्ति लेख, 9. दार्शनिक साहित्य |
दार्शनिक साहित्य के अन्तर्गत चार रचनाएँ प्राप्त होती हैं- 1. लोकप्रकाश, 2. नयकर्णिका, 3. पंचसमवाय स्तवन एवं 4. षट्त्रिंशज्जल्पसंग्रह संक्षेप | लोकप्रकाश 37 सर्गों में विभक्त और लगभग 18000 श्लोकों में निबद्ध एक अद्भुत ग्रन्थ है। इसमें द्रव्य, क्षेत्र और भाव लोक का वर्णन कर समग्र दृष्टि से तत्त्वबोध की नवीन दृष्टि को प्रस्तुत किया है। पुद्गल का ग्रहण लक्षण देकर उन्होंने उसके वास्तविक स्वरूप को उद्घाटित किया है । काल सम्बन्धी दोनों मान्यताओं की आगमिक युक्तियों को बताते हु विनयविजय जी ने अपनी युक्तियाँ भी योजित की हैं। काल के पृथक् द्रव्यत्व की सिद्धि में वे तर्क देते हैं- सूर्य आदि की गति का आधार, समय - अवलिका आदि शब्दों के प्रयोग, बीज से पत्र, पुष्प एवं फल की समान काल में उत्पत्ति का न होना, वर्तमान, भूत, भविष्य की पृथक् अनुभूति का होना आदि । काल के स्वतन्त्र द्रव्य की अस्वीकृति में अनवस्था दोष एवं काल के अनस्तिकायत्व को हेतु बताया है । भावलोक में जीव के आन्तरिक एवं चैतसिक परिणामों का सूक्ष्मता से विवेचन किया
28/ भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान
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