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बृहत्काय टीका स्याद्वादरत्नाकर के निर्माण में अपने गुरू का भी सहयोग किया तथा स्वतन्त्र रूप से 'रत्नाकरावतारिका नाम लघुटीका की भी रचना की । रत्नप्रभ ने यद्यपि इसका लेखन स्याद्वादरत्नाकर में प्रवेश करने हेतु अवतारिका (घाट) के रूप में किया है, तथापि यह स्वयं परिनिष्ठित संस्कृत एवं सामासिक शैली के कारण दुरूह रचना बन गई है । इसको हृदयंगम करने के लिए राजशेखसूरि ने पंजिका तथा मुनि ज्ञानचन्द्र ने टिप्पण का लेखन किया । रत्नाकरावतारिका की विषयवस्तु एवं स्याद्वादरत्नाकर की विषयवस्तु में अधिक भेद नहीं है, रत्नप्रभ ने विभिन्न दर्शनों का प्रतिपादन एवं उनका निरसन, संक्षेप में सबल तर्कों से किया है। रत्नाकरावतारिका में चक्षु एवं मन की अप्राप्यकारिकता तथा श्रोत्र की प्राप्यकारिता पर अनेक श्लोक रचे गए हैं।
वादी देवसूरि एवं रत्नप्रभसरि के स्याद्वादरत्नाकर एवं रत्नाकरावतारिका ग्रन्थ जैन न्याय का तो व्यवस्थित प्रतिपादन करते ही हैं। भारतीय दर्शन के प्रमाणमीमांसीय एवं तत्त्वमीमांसीय सिद्धान्तों को पूर्वपक्ष में विशदतापूर्वक प्रस्तुत करते हुए उनकी समालोचना भी करते है। इससे ये दोनों ग्रन्थ भारतीय दर्शन के प्रतिनिधि ग्रन्थों की श्रेणी में रखे जाने योग्य हैं।
- 3 - के - 24 / 25, कुडी भगतासनी हा बोर्ड, जोधपुर
26/ भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान
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