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क्योंकि उसमें भी न्यायदर्शन के देवता के रूप में शिव का ही उल्लेख किया गया है
अक्षपादमते देवः सृष्टिसंहारकृच्छिव यह ग्रंथ भी हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' के समान केवल परिचयात्मक और निष्पक्ष प्रस्तुत करता है और आकार में मात्र छियासठ श्लोक प्रमाण है।
जैन परंपरा में दर्शनसंग्राहक ग्रंथों में तीसरा क्रम राजशेखर (विक्रम संवत 1405) के 'षड्दर्शनसमुच्चय' का आता है। इस ग्रंथ में जैन, सांख्य, जैमिनीय, योग, वैशेषिक और सौगत (बौद्ध)- इन छह दर्शनों का उल्लेख किया गया है। हरिभद्र के समान ही इस ग्रंथ में भी इन सभी को आस्तिक कहा गया है और अंत में नास्तिक के रूप में चार्वाक दर्शन का परिचय दिया गया है। हरिभद्र के 'षड्दर्शनसमुच्चय' और राजशेखर के 'षड्दर्शनसमुच्चय' में एक मुख्य अंतर इस बात को लेकर है कि दर्शनों के प्रस्तुतीकरण में जहां हरिभद्र जैन दर्शन को चौथा स्थान देते हैं, वहां राजशेखर जैन दर्शन को प्रथम स्थान देते हैं। पंडित सुखलाल संघवी के अनुसार संभवतः इसका कारण यह हो सकता है कि राजशेखर अपने समकालीन दार्शनिकों के अभिनिवेशयुक्त प्रभाव से अपने को दूर नहीं रख सके।
__पंडित दलसुखभाई मालवणिया की सूचना के अनुसार राजशेखर के काल का ही एक अन्य दर्शनसंग्राहक ग्रंथ आचार्य मेरुतुंगकृत षड्दर्शननिर्णय है। इस ग्रंथ में मेरुतुंग ने बौद्ध, मीमांसा, सांख्य, नैयायिक, वैशेषिक आदि छह दर्शनों की मीमांसा की है, किंतु इस कृति में भी हरिभद्र जैसी उदारता नहीं है। यह मुख्यतया जैनमत की स्थापना और अन्य मतों के खंडन के लिए लिखा गया है। एकमात्र इसकी विशेषता यह है कि इसमें महाभारत, स्मृति, पुराण आदि के आधार पर जैनमत का समर्थन किया गया है।
पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने 'षड्दर्शनसमुच्चय' की प्रस्तावना में इस बात का भी उल्लेख किया है कि सोमतिलकसूरिकृत 'षड्दर्शनसमुच्चय' की वृत्ति के अंत में दर्शनसंग्राहक अज्ञातकृतक एक कृति का उल्लेख है। इसमें भी जैन, नैयायिक, बौद्ध, वैशेषिक, जैमिनीय, सांख्य और चार्वाक-ऐसे
भारतीय दर्शन को जैन दार्शनिकों का अवदान/13
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