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________________ मृत्यु - डॉ. सागरमल जैन मृत्यु शरीर के कारागृह से मुक्ति का पर्व है। यह तो 'स्व' का संकुचित घेरा तोड़ विराट् में समाने का उत्सव है। बीज मिटकर ही वृक्ष बन पाता है स्वयं को मिटाकर ही व्यक्तिअनन्त को जीवन दे पाता है। मित्रोंमौत से घबराने की क्या बात है? यह तो अनन्त के साथ शादी की बारात है। मिटकर बनना और बनकर मिटना यही तो जीवन यात्रा का अनोखा है खेल यह यात्रा तो पहुँचती वहाँ है जहाँ स्व' नहीं 'सर्व' है। आना जाना तो लगा ही रहता है इसमें डरने की क्या बात है? नये नये रूपों को धरने का यही तो एक अन्दाज है। यदि पहनने की चाह है नये कपड़े बदलने ही होंगे पुराने, यदि पाना है नव जीवन, तो मरण से मित्रता करनी ही होगी। होना ही होगा आलिंगनबद्ध मृत्यु से मृत्यु यात्रा की समाप्ति नहीं है। यह तो नई यात्रा का प्रस्थान पर्व है। समझ नहीं आता कि लोग मृत्यु से कतराते क्यों है? अनन्त यात्रा पर निकलने से घबराते क्यों हैं? मृत्यु एक शाश्वत सत्य है इससे मुखातिब होने में क्या घबराना। सत्य को जानकर उससे जी चुराना क्यों? तरह तरह से बहाना बनाना क्यों? जीवन-धरा को अनन्त महासागर में मिलना ही है। फिर, किनारों के छूटने का भय कैसा? किनारे छूटने पर ही तो मिलन संभव किनारे कभी मिलते नहीं बस महासागर बनने में छूट जाते है। मृत्यु समग्र विनाश नहीं यह तो रूपान्तरण है यह जीवन की समाप्ति नहीं यह तो नवजीवन की नवचेतना का उत्साह है। श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 32 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003247
Book TitleShravak Dharm aur Uski Prasangika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2011
Total Pages34
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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