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3. श्रृंगार नहीं करना, 4. स्त्री जाति के रूप-सौन्दर्य सम्बन्धी तथा कामवर्धक वार्तालाप नहीं करना, 5. स्त्रियों के साथ एक आसन पर नहीं बैठना आदि नियमों का भी पालन करता
है ।
7. सचित्त आहारवर्जन - प्रतिमा :- पूर्वोक्तप्रतिमाओं के नियमों का यथावत् पालन करते हुए इस भूमिका में आकर गृहस्थ साधक अपनी भोगासक्ति पर विजय की एक और मोहर लगा देता है और सभी प्रकार की सचित्त वस्तुओं के आहार का त्याग कर देता हैं एवं उष्ण जल तथा अचित्त आहार का ही सेवन करता है । साधना की इस कक्षा तक आकर गृहस्थ उपासक अपने वैयक्तिक जीवन की दृष्टि से अपनी वासनाओं एवं आवश्यकताओं का पर्याप्त रूप से परिसीमन कर लेता है, फिर भी पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करने की दृष्टि से गार्हस्थिक कार्य एवं व्यवसाय आदि करता है, जिनके कारण वह उद्योगी एवं आरम्भी हिंसा से पूर्णतया बच नहीं पाता है।
8. आरम्भत्याग - प्रतिमा :- साधना की इस भूमिका में आने के पूर्व गृहस्थ उपासक का महत्वपूर्ण कार्य यह है कि वह अपने समग्र पारिवारिक एवं सामाजिक उत्तरदायित्वों को अपने उत्तराधिकारी पर डाल दे और स्वयं निवृत्त होकर सारा समय धर्माराधना में aire है। इस भूमिका में रहकर गृहस्थ उपासक यद्यपि स्वयं व्यवसाय आदि कार्यो में भाग नही लेता हैं और न स्वयं कोई आरम्भ ही करता हैं, फिर भी वह अपने पुत्रादि को यथावसर व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में मार्गदर्शन देता रहता है।
9. परिग्रह - विरत - प्रतिमा :- गृहस्थ उपासक को जब संतोष हो जाता है कि उसकी सम्पत्ति का उसके उत्तराधिकारियों द्वारा उचित रूप से उपयोग हो रहा है अथवा वह योग्य हाथों में है तो वह उस सम्पत्ति पर से अपने स्वामित्व के अधिकार का भी परित्याग कर देता है और इस प्रकार निवृत्ति की दिशा में एक कदम आगे बढ़कर परिग्रह से विरत होता है । फिर भी इस अवस्था में वह पुत्रादि को व्यावसायिक एवं पारिवारिक कार्यों में उचित मार्गदर्शन देता रहता है । इस प्रकार परिग्रह से विरत हो जाने पर भी वह अनुमति - विरत नहीं होता । श्वेताम्बर परम्परा में परिग्रहविरत प्रतिमा के स्थान पर भृतक प्रेष्यारम्भ वर्जन प्रतिमा है जिसमें गृहस्थ उपासक स्वयं आरम्भ करने एवं दूसरे से करवाने का परित्याग कर देता है, लेकिन अनुमति - विरत नहीं होता है ।
11. श्रमणभूत- प्रतिमा इस अवस्था में गृहस्थ उपासक की अपनी समस्त चर्या साधु के समान होती है। उसकी वेशभूषा भी लगभग वैसी ही होती है। वह भिक्षाचर्या द्वारा ही जीवन-निर्वाह करता है और लिए चुने हुए भोजन का त्याग कर देता है।
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श्रावकधर्म और उसकी प्रासंगिता : 30
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